विकास – संवेगात्मक विकास
संवेग की उत्पति जन्म के साथ होती है। मानव जीवन में इसका आध्यात्मिक महत्व है। व्यक्तित्व में सरलता, कठोरता, क्रूरता, संवेगों के कारण ही उत्पन्न होती है।
सामाजिक विकास
संवेग एक प्रकार की आंतरिक उत्तेजना है जिसमें मनुष्य अपना विवेक खो देता है दूसरी ओर इसके सकारात्मक प्रभाव भी प्रकट होते हैं। जैसे – देशप्रेम, बलिदान, दया, प्रेम।
मनोवैज्ञानिकों ने संवेग को एक आंतरिक उपद्रव माना है जो किसी उत्तेजक से उत्पन्न होती है जिसमें शारीरिक व मानसिक असहजता आती है।
संवेग दो शब्दों से मिलकर बना है – सम + वेग अर्थात् समान रूप् से उत्तेजना उत्पन्न होना।
शरीर और मन जब समान रुप से उत्तेजित होते हैं तो संवेदना उत्पन्न होती है।
संवेग अंग्रेजी के EMOTION शब्द का हिन्दी रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ – आंतरिक भावों को गति प्रदान करने से होता है।
सामान्य शब्दों में- बालक–बालिकाओं को शारीरिक संरचना में तत्काल परिवर्तन कर उन्हें कार्य करने के लिए प्रेरित करने वाली प्रक्रिया–संवेग कहलाती है।
संवेग तत्काल उत्पन्न होते है परंतु शांत धीरे–धीरे होते हैं। संवेग व्यक्ति की क्रिया शीलता पर प्रभाव डालता है।
परिभाषा
- वुडवर्थ – संवेग व्यक्ति की गति में आने की स्थिति है।
- वेलेन्टाइन – जब रागात्मक प्रवृति का वेग बढ़ जाता है तभी संवेग की उत्पत्ति होती है।
- क्रो एवं क्रो – संवेग को व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था के रुप में परिभाषित किया जा सकता है।
- रॉस – संवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें रागात्मक तत्वों की प्रधानता होती है।
- पी.टी. यंग – संवेग संपूर्ण जीवन का मूलत: मनोवैज्ञानिक तीव्र उद्वेग है जिसमें कि चेतन, अनुभूति, व्यवहार एवं अंतरावयव के कार्य सम्मिलित रहते हैं।
- जरसील्ड – किसी भी प्रकार से आवेग आने, भड़क उठने तथा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को संवेग कहते हैं।
संवेग की विशेषताऐं
- संवेग तत्काल उत्पन्न होते हैं।शांत धीरे–धीरे
- संवेग में शारीरिक व मानसिक क्रियाऐं एक–साथ होती है।
- संवेग अत्यंत उग्र व स्पष्ट होते हैं।
- संवेग में विवेक पूर्ण निर्णय की संभावना कम रहती है।
- संवेगों में व्यक्तिगत भेद पाया जाता है।
- बालकों में संवेगों का स्थानान्तरण पाया जाता है।
- संवेग एक मनोवैज्ञानिक उद्धेग है।
- इस में आंतरिक व बाह्य परिवर्तन होते हैं।
- इस के रचनात्मक व विनाशात्मक परिणाम प्रकट होते हैं।
- किसी उड्डीपयक की उपस्थिति में ही संवेग उत्पन्न होते हैं।
- संवेग व्यक्ति की क्रिया शीलता पर प्रभाव डालते हैं।
- संवेगों में व्यापकता होती है।
- संवेग उत्पति के समय व्यक्ति की मानसिकता कार्य करना बंद कर देती है। वाटसन नामक मनोवैज्ञानिक ने बालकों में दो प्रकार के संवेग बताये।
- भय
- क्रोध
- प्रेम
- ब्रिजेस नामक मनोवैज्ञानिक ने दो वर्ष तक के शिशुओं में 9 संवेग बताये।
आयु | संवेग |
जन्म के समय | उत्तेजना |
3 माह | उत्तेजना, आनंद, कष्ट |
6 माह | उत्तेजना, आनंद, कष्ट, क्रोध, घृणा, भय |
12 माह | उत्तेजना, आनंद, कष्ट, क्रोध, घृणा, भय, स्नेह, उल्लास |
18 माह | उत्तेजना, आनंद, कष्ट, क्रोध, भय, स्नेह, उल्लास, ईर्ष्या |
24 माह | उत्तेजना, आनंद, कष्ट, क्रोध, भय, स्नेह, उल्लास, ईर्ष्या |
Note – ब्रिजेस ने नवजात शिशु में केवल उत्तेजना संवेग बताया। विलियम मेक्डूग लने उसमें मूल प्रवृत्ति सिद्धांत में बालक में 14 प्रकार के संवेग व 14 प्रकार की ही मूल प्रवृत्तियां बताई।
संवेग | मूलप्रवृत्ति |
भय | पलायन |
क्रोध | युयुत्सा/दमन |
ईर्ष्या | निवृति |
आश्चर्य | जिज्ञासा प्रवृति |
वात्सल्य | पुंज प्रेम |
कामुकता | विषमलेंगी सद्भावना |
एकाकीपन | समूह की इच्छा |
एकाधिकार | संचय वृत्ति |
कृतिभाव | रचनात्मक कार्य |
विषाद | दुख/हानि |
आत्माभिमान | आत्म गौरव |
आत्महीनता | दीनता/शरणागति |
भूख | भोजनान्वेषण / भोजन की खोज |
अमोद | हंसी/ प्रसन्नता /खुशी |
बाल-विकास – सामाजिक विकास की अवधारणा
समाज द्वारा मान्य व्यवहारों को स्वीकार कर अमान्य व्यवहारों को त्यागना ही सामाजिक विकास कहलाता है।
समाज द्वारा – निरुपित नियमों एवं सिद्धांतों के अनुसार अपनी इच्छाओं एवं आवश्यकताओं का दमन कर समाज में मान-मर्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त करने की प्रक्रिया ही सामाजिक विकास कहलाती है।
हरलॉक – सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुरुप व्यवहार की योग्यता का अधिगम ही सामाजिक विकास कहलाता है।
सामान्य अर्थ में –समाज के आदर्शों के अनुसार व्यवहार करने की योग्यता का विकास करना।
शैशवावस्था में सामाजिक विकास – 02/05 वर्ष
- इस अवस्था में बालक-बालिकाओं में सामाजिक गुणों का अभाव पाया जाता है।
- इस अवस्था में बालक-बालिकाओं को सामाजिक संबंधों का ज्ञान नहीं होता।
- इस अवस्था में बालकों में नैतिक गुणों का अभाव पाया जाता है।
- बालक-बालिकाओं में सर्वप्रथम सामाजिक गुणों की नीव माता द्वारा शैशवावस्था में रखी जाती है।
- इस अवस्था में बालकों की खिलौनों में सर्वाधिक रुचि होती है।
- इसमें बालक अपनी संवेदनाओं/ज्ञानेन्द्रियों द्वारा वातावरण से ज्ञान ग्रहण करता है।
- इस अवस्था में बालक प्रत्येक वस्तु को देखकर, सुनकर या अनुकरण के माध्यम से सीखता है।
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास – 6-12
- बालक-बालिकाओं का सबसे अधिक सामाजिक विकास इसी अवस्था में होता है।
- इस अवस्था में बालकों को सामाजिक-संबंधों का ज्ञान हो जाता है।
- इस अवस्था में बालकों में सामाजिक गुणों का विकास इसी अवस्था में होता है।
- इस अवस्था में बालक-माता-पिता से दूर व शिक्षक से सर्वाधिक नजदीक रहता है।
- बालक-बालिकाओं में इस अवस्था में समलेंगी सद्भावना, खेलों में रुचि, टोली की भावना सर्वाधिक पायी जाती है।
- इस अवस्था में – विषमलेंगी भावना का अभाव पाया जाता है।
- किशोरावस्था में शारीरिक विकास – 13-19
- इस अवस्था में बालकों की सामाजिक कार्यों में सर्वाधिक रुचि होती है।
- देशभक्ति +ईश्वर व धर्म की भावना का विकास हो जाता है।
- बालक-बालिकाओं में वीर पूजा की भावना का विकास हो जाता है।
- बालक-बालिकाओं में विषमलेंगी सद्भावना।