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हिन्दू मन्दिर वास्तुकला
मंदिरों का भारतीय धर्म संस्कृति में प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं। अवतारवाद के कारण भारतीय धर्म संस्कृति में देवताओं की मूर्तियाँ एवं मंदिरों का निर्माण भी प्रारम्भ हुआ। मंदिरों का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।
मंदिर स्थापत्य
भारत में सर्वप्रथम गुप्तकाल में भवनात्मक मंदिरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। भारत में मंदिर स्थापत्य को तीन शैलियों में विभाजित किया जा सकता हैं
नागर शैली | Nagar Shaili
नागर शब्द नगर से बना है। नागर शैली के मंदिर ऊँचे चबूतरे पर आधार से शिखर तक चौपहला या वर्गाकार होते हैं। मंदिर के चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर सीढ़ियाँ होती हैं। वर्गाकार गर्भगृह की ऊपरी बनावट ऊँची मीनार जैसी होती है।
नागर शैली का प्रसार पश्चिम में महाराष्ट्र से लेकर पूर्व में बंगाल व उड़ीसा तक तथा दक्षिण में विध्यांचल से लेकर उत्तर में हिमालय के चम्बा कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) तक है। नागर शैली का प्रमुख केन्द्र मध्य प्रदेश है।
उड़ीसा के कोणार्क का काला पगोड़ा नामक सूर्य का मंदिर इस शैली का सर्वोत्कृष्ट मंदिर है। इसका निर्माण केसरी कुल के राजा नरसिंह ने 1240 ई. से 1280 ई. के मध्य करवाया। चंदेल शासकों द्वारा मध्य प्रदेश में निर्मित खजुराहों के मंदिर अपनी भव्यता, शिल्प-सौष्ठव एवं कायिक दिव्यता में बेजोड़ है।
द्रविड़ शैली | Dravid Shaili
दक्षिण भारत में विकसित मंदिर स्थापत्य शैली। इस शैली का आधार भाग प्राय: वर्गाकार होता है और शीर्ष भाग गुंबदाकार होता है। इस शैली में गर्भगृह के ऊपर का भाग सीधा पिरामिडनुमा होता है।
इस शैली की प्रमुख विशेषता गोपुरम (मंदिर का भव्य प्रवेश द्वार) एवं विमान है। इस शैली का विस्तार तुंगभद्रा नदी से लेकर कुमारी अन्तरीप तक है। द्रविड़ शैली के प्रमुख मंदिर तंजौर, मदुरैई, काँची, हम्पी, विजयनगर आदि क्षेत्रों में हैं।
द्रविड़ शैली का आरम्भ ईसा की सातवीं सदी में हुआ था जब मामल्लपुरम में सप्त पगोड़ा नामक मंदिरों का निर्माण पल्लव शासकों द्वारा किया गया था। कैलाशनाथ का मंदिर, तंजौर का वृहदीश्वर मंदिर, पेरूमल मंदिर आदि द्रविड़ शैली के प्रमुख मंदिर हैं।
बेसर शैली | besar shaili
बेसर शैली नागर एवं द्रविड़ शैलियों का मिश्रित रूप हैं। बेसर का शाब्दिक अर्थ – खच्चर अर्थात दो भिन्न जातियों से जन्मा हुआ। बेसर शैली के मंदिरों में विन्यास में द्रविड़ शैली तथा रूप में नागर शैली का प्रयोग किया जाता है। इस शैली का विस्तार विंध्याचल और तुंगभद्रा (कृष्णा) नदी के मध्य है। इस मिश्रित शैली के मंदिर चालुक्य नरेशों ने कन्नड़ जिलों में और हायसल राजाओं ने मैसूर में बनवाये।
पंचायतन शैली | panchayatan shaili
हिन्दू मंदिर शैली जिसमें मूलत: पाँच अंग हैं – पंचरथ सान्धार गर्भगृह, अन्तराल, गूढ़मण्डप, रंगमण्डप तथा मुखमण्डप इस मंदिर में मुख्य देवता और उसी देव परिवार के चार अन्य देवताओं के छोटे मंदिर एक ही पीठ या परिक्रमा पथ द्वारा मुख्य मंदिर से जुड़े होते हैं। भारत में पंचायतन शैली का प्रथम उदाहरण देवगढ़ (झांसी) का दशावतार मंदिर है।
राजस्थान में पंचायतन मंदिरों की शैली के सर्वप्रथम उदाहरण ओसियां का हरिहर मंदिर हैं।राजस्थान में पंचायतन शैली के प्रमुख मंदिरों में बाड़ोली का शिव मंदिर एवं ओसियां का हरिहर मंदिर है।
राजस्थान में मंदिर स्थापत्य
उत्तर भारत के मंदिर स्थापत्य में राजस्थान का अपना महत्व है। आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व मत्स्य देश की राजधानी विराट नगर (बैराठ) में भगवान बुद्ध को समर्पित स्तूप अथवा शिवि जनपद की राजधानी मध्यमिका (नगरी) में संकर्षण और वासुदेव के निर्मित वैष्णव मंदिर राजस्थानी मंदिर स्थापत्य को दर्शाता है।
राजस्थान में मंदिर स्थापत्य में तोरण द्वार (अलंकृत प्रवेश द्वार), उप मण्डप, सभा मण्डप (विशाल आँगन), मूल मंदिर का प्रवेश द्वार, गर्भगृह (मूल मंदिर जिसमें नायक की प्रतिमा होती है), गर्भगृह के ऊपर अलंकृत शिखर एवं प्रदक्षिणा पथ (गर्भगृह के चारों ओर गलियारा) प्रमुख अंग हैं।
प्रारम्भिक मंदिर
विराट नगर (बैराठ) बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ से मौर्य शासक अशोक के दो महत्वपूर्ण अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। बैराठ से पूजा की वस्तु भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेषों से सन्निहित स्तूप था। लालसोट (जयपुर) परिसर में भी प्राचीन बौद्ध स्तूप थे जिनके स्तम्भ आज भी बन्जारों की छतरियों के रूप में सुरक्षित हैं।
नगरी (चित्तौड़) में वैष्णव मंदिर के भग्नावशेष तथा आंवलेश्वर (प्रतापगढ़) का शैल भुजा (अभिलेखयुक्त स्तम्भ) मेवाड़ क्षेत्र में भागवत धर्म के प्रमाण हैं।
पूर्वी राजस्थान में नोह (भरतपुर) में आज भी शुंगकालीन 8 फीट ऊँची यक्ष प्रतिमा को ‘जाख बाबा’ के रूप में पूजा जाता है। नाँद (पुष्कर) में कुषाणकालीन शिवलिंग स्थापित है। रेढ़ (टोंक) में प्राप्त ‘गजमुखी यक्ष’ प्रतिमा शुंग कालीन है।
गुप्तकालीन मंदिर
गुप्त काल में सर्वप्रथम भवनात्मक मंदिरों के निर्माण का प्रचलन शुरू हुआ। गंगाधार (झालावाड़) में महाराज विश्ववर्मन के मंत्री मयूराक्ष द्वारा वि. सं. 423 (480 ई.) में विष्णु स्थान के साथ-साथ डाकिनी से युक्त मातृका मंदिर बनवाया जो धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है।
अन्य गुप्तकालीन मंदिराें में भ्रमरमाता का मंदिर (547 ई.), मनोरथ स्वामी का मंदिर (चित्तौड़), चारचौमा (कोटा) का शिव मंदिर, मुकन्दरा का शिव मंदिर प्रमुख हैं।
गुप्तोत्तरकालीन मंदिर
गुप्तोत्तरकालीन मंदिरों में कृत्तिकाओं का मंदिर (तनेसर), झालरापाटन का शीतलेश्वर महादेव मंदिर (राजस्थान का प्रथम तिथियुक्त मंदिर – 689 ई.), कंसुआ (कोटा) का शैव मंदिर (739 ई.) प्रमुख हैं।
महामारू शैली / गुर्जर-प्रतिहारकालीन मंदिर स्थापत्य
राजस्थान में पूर्व मध्यकालीन कला को निखार प्रदान करने में गुर्जर राजवंश का विशिष्ट योगदान है, जिनका मुख्य क्षेत्र जालौर-भीनमाल-मंडोर था।
8वीं से 12वीं सदी तक का काल गुर्जर-प्रतिहारों का काल है। सांस्कृतिक निर्माण की दृष्टि से यह काल राजस्थान का स्वर्णकाल है।
गुर्जर-प्रतिहारों के द्वारा क्षेत्रीय मंदिर स्थापत्य शैली का विकास किया गया जिसे महामारू शैली कहा गया। इस शैली का विस्तार मरू प्रदेश से लेकर आभानेरी, चित्तौड़, उत्तरी मेवाड़, उपरमाल पट्टी तक हुआ।
इस शैली के प्रारम्भिक उत्कर्ष काल में चित्तौड़, आभानेरी एवं ओसियां प्रमुख हैं। ओसियां में प्रतिहार राजा वत्सराज द्वारा 8वीं सदी में निर्मित महावीरजी का मंदिर राजस्थान में अब तक ज्ञात सबसे प्राचीन जैन मंदिर है। प्रतिहार राजा कक्कुक ने 861 ई. में घटियाला (जोधपुर) में जैन अम्बिका मंदिर बनवाया।
- मंडोर के मंदिरों का निर्माण महामारू वास्तुशैली का है।
- गोठ मांगलोद (नागौर) का मंदिर 9वीं सदी में प्रतिहार शैली में बना है।
- महामारू शैली में निर्मित मंदिर अधिकांशत: विष्णु या सूर्य को समर्पित हैं।
गुर्जर-प्रतिहार काल के प्रमुख मंदिर
- ओसियां (जोधपुर) के सूर्य मंदिर, महावीर मंदिर एवं हरिहर मंदिर (8वीं सदी)
- चित्तौड़ का कालिका मंदिर
- 10वीं सदी में निर्मित आभानेरी का मंदिर
- 10वीं सदी में निर्मित नागदा का सास-बहू मंदिर।
- आऊवा (पाली) का कामेश्वर मंदिर – 9वीं सदी में निर्मित।
- खेड़ (बाड़मेर) का रणछोड़ जी का मंदिर
- कैकीन्द का नीलकण्ठेश्वर मंदिर
- हर्षनाथ का मंदिर (सीकर)
- ब्रह्माणस्वामी का मंदिर (सिरोही)
गुर्जर-प्रतिहार शैली का अन्तिम एवं सबसे भव्य मंदिर किराडू का सोमेश्वर मंदिर हैं। किराडू को राजस्थान का खजुराहो भी कहा जाता है।
मारू-गुर्जर (सोलंकी) शैली | solanki shaili
1000 ई. के पश्चात विकसित सोलंकी शैली में स्थापत्य को प्रधानता दी गई।
- मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर (गुजरात) – यह इस शैली का पहला मंदिर है।
- समिद्धेश्वर मंदिर (चित्तौड़)
- सच्चियाय माता मंदिर (ओसियां)
- चन्द्रावती के मंदिर
- देलवाड़ा के जैन मंदिर (पहला मंदिर – 1031 ई. में विमलशाह द्वारा निर्मित। दूसरा मंदिर 1231 ई. में तेजपाल द्वारा निर्मित)
नोट:- राजस्थानी मंदिर स्थापत्य का उत्कर्ष काल :- 11वीं से 13वीं सदी के मध्य।
भूमिज शैली | Bhumij Shaili
मध्य प्रदेश और उत्तरी महाराष्ट्र में विकसित मंदिर स्थापत्य की उप शैली। राजस्थान में भूमिज शैली का सबसे पुराना मंदिर सेवाड़ी का जैन मंदिर (पाली) है जो 1010 ई. से 1020 ई. के मध्य बनाया गया। इस शैली के अन्य मंदिर महानालेश्वर मंदिर (मैनाल), भण्डदेवरा (बारां), सूर्य मंदिर (झालरापाटन), अद्भुत नाथ मंदिर (चित्तौड़), उण्डेश्वर मंदिर (बिजौलिया) आदि हैं।
देवल
जिन स्मृति स्मारकों में चरण या देवताओं की प्रतिष्ठा कर दी जाती है और जिनमें गर्भगृह, शिखर, नंदीमण्डप, शिवलिंग बनाया जाता है उन्हें देवल कहा जाता हैं।