हाड़ौती स्कूल

कोटा – बूँदी – झालावाड़ – बारां का क्षेत्र हाड़ौती कहलाता है। इस क्षेत्र में हाड़ा राजपूत शासकों के संरक्षण में पल्लवित चित्रकला शैली को हाड़ौती स्कूल के नाम से जाना गया।

हाड़ौती स्कूल

 हाड़ौती स्कूल में बूँदी शैली, कोटा शैली एवं झालावाड़ शैली प्रमुख है।

बूँदी शैली

  • राव सुर्जन हाड़ा (1554-85) के समय विकसित चित्रकला शैली।
  • इस शैली पर मेवाड़ और मुगल शैली का प्रभाव है।
  • महाराव शत्रुशाल (छत्रशाल) ने सुंदर भित्ति चित्रों से सुसज्जित रंगमहल बनवाया।

शैली के प्रारम्भिक चित्र :- राग दीपक, रागिनी बिलावल, रागिनी भैरवी, रागिनी मालश्री, रागिनी खंभावती आदि।

महाराजा भावसिंह के दरबारी कवि मतिराम ने ‘ललित कलाम’ की रचना की। भावसिंह के समय ही ‘रसराज’ पर आधारित चित्रण परम्परा की शुरुआत हुई।

महाराजा बुद्धसिंह के समय लालकवि ने अलंकरण ग्रंथ की रचना की।

महाराव उम्मेदसिंह का काल ‘बूँदी चित्रकला का स्वर्णकाल’ कहलाता है। महाराव उम्मेदसिंह ने बूँदी के राजमहल में चित्रशाला का निर्माण करवाया जिसमें बूँदी शैली के सर्वश्रेष्ठ चित्र अंकित हैं। चित्रशाला को ‘भित्तिचित्रों का स्वर्ग’ कहा जाता है।

सुर्जन हाड़ा के पौत्र रतनसिंह को चित्रकला प्रेम के कारण जहाँगीर ने सर बुलंदराय की पदवी से सम्मानित किया था।

राव राजा विष्णुसिंह ने रीतिकालीन शृंगारपरकता पर अनेक चित्रों का निर्माण करवाया।

राव राजा रामसिंह (1821-89) के काल में बूँदी शैली अपनी मौलिकता खोने लगी।

राव उम्मेदसिंह का जंगली सुअर का शिकार करते हुए बनाया गया चित्र विश्व प्रसिद्ध है।

प्रमुख चित्रकार :- अहमद अली, गोविन्दराज, डालू, लच्छीराम, नूरमोहम्मद, सुरजन, रामलाल, श्रीकिशन साधुराम, रघुनाथ।

चित्रण विषय :- सामंती जीवन, कृष्ण चरित, नायिका भेद, रागरंग, आमोद-प्रमोद, शिकार एवं पशुओं की लड़ाई।

विशेषताएँ

  • ईरानी, दक्षिणी, मराठा, मुगल व मेवाड़ शैली से प्रभावित।
  • रेखाओं का सर्वाधिक व सशक्त चित्रण।
  • सतरंगा चित्रण। हरा रंग प्रधान।
  • पशु-पक्षियों का अधिक चित्रण।
  • मयूर, हाथी, हिरण, सरोवर, केले व खजूर वृक्ष का अधिक चित्रण।
  • भित्ति चित्रण बहुलीता से।
  • प्रकृति का सुरम्य सतरंगा चित्रण।
  • आकाश का वर्ण विधान एवं सघन प्राकृतिक सुषमा।
  • महाराव राजा उम्मेदसिंह के काल में चित्रकला शैली में आए परिवर्तन :- भावनाओं की सरलता
  • प्रकृति की विविधता
  • पशु-पक्षियों तथा सतरंगे बादलों, जलाशयों आदि के चित्रण की बहुलता।
  • नायक-नायिकाओं के शारीरिक सौन्दर्य की तीव्रता।

कोटा शैली

1631 ई. में कोटा की स्थापना राव माधोसिंह ने की। राव माधोसिंहमुकुन्द सिंह के काल में चित्रांकन कार्य को प्रारम्भ किया गया लेकिन राव रामसिंह (1696 – 1707) के समय ही कोटा की स्वतंत्र शैली का विकास हुआ।

महाराव भीमसिंह (1707-1720) के समय कोटा शैली पर वल्लभ सम्प्रदाय का स्पष्ट प्रभाव झलकने लगा।

माधोसिंह ने स्वयं का नाम ‘कृष्णदास’ व कोटा का नाम ‘नंदगाँव’ रख दिया।

महाराव दुर्जनशाल के समय वल्लभ सम्प्रदाय की प्रथम पीठ ‘मथुरेशजी’ की प्रतिष्ठा कोटा में की गई।

महाराव शत्रुशाल (1749-66 ई.) के समय नंदगाँव (कोटा) में कन्हैया ब्राह्मण द्वारा भागवत का लघु सचित्र ग्रंथ का चित्रण किया गया। ‘ढोलामारू’ नामक ग्रंथ का चित्रण इन्हीं के काल में किया गया था।

महाराव गुमानसिंह के काल में 1768 ई. में ‘रागमाला सैट’ का चित्रण डालू नामक चित्रकार द्वारा किया गया। यह कोटा शैली का सबसे बड़ा रागमाला सैट है।

महाराव उम्मेदसिंह का शासनकाल ‘कोटा चित्रकला शैली का स्वर्णकाल’ कहलाता है। इनके समय ही झाला जालिमसिंह ने कोटा दुर्ग में झाला हवेली का निर्माण करवाकर उसमें नयनाभिराम भित्ति चित्रण करवाया।

उम्मेदसिंह ने हवेली की दीवारों पर शिकार के विशाल चित्र बनवाये। महाराव उम्मेदसिंह के समय चित्रित ‘वल्लभोत्सव चन्द्रिका’ एवं ‘गीता पंचमेल’ प्रमुख ग्रंथ थे। इन्हीं के काल में कोटा शैली पर कम्पनी शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा।

महाराजा रामसिंह के समय कोटा शैली में चित्रांकन बड़ी-बड़ी वसलियों पर किया गया।

प्रमुख चित्रकार :- रघुनाथ, गोविन्दराम, डालू, लच्छीराम, नूर मोहम्मद, कन्हैया ब्राह्मण आदि।

चित्रण विषय :- शिकार, हाथियों की लड़ाई, दरबारी दृश्य, बारहमासा, राग-रागिनियाँ, युद्ध निदर्शन आदि।

विशेषताएँ

  • बड़ी-बड़ी वसलियों पर शिकार का सामूहिक चित्रण।
  • कोटा शैली में नारियों एवं रानियों को शिकार करते हुए दिखाया गया हैं।
  • हल्के हरे, पीले एवं नीले रंग का अधिक प्रयोग।
  • गहन जंगलों में शिकार की बहुलता।
  • भित्ति चित्रण प्रमुखता से।
  • चम्पा, सिंह, मोर एवं उमड़ते-घुमड़ते घने बादल प्रमुख: चित्रित।
  • संरंगी प्रकृति परिवेश का चित्रण।
  • इस शैली में हाशिये में लाल व नीले रंग का प्रयोग।

झालावाड़ शैली

1838 ई. में झालावाड़ रियायत के निर्माण के पश्चात विकसित शैली। झालावाड़ शैली का उन्नयन महलों एवं मंदिरों में भित्ति चित्रण द्वारा हुआ। झालावाड़ में भित्ति चित्रण का कार्य 19वीं सदी के मध्य से लेकर 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक चलता रहा। झालावाड़ के भित्ति चित्रों में राजसी वैभव व सामंती परिवेश का उत्तम चित्रांकन किया गया।

भित्ति चित्रण

  • दीवारों पर किया गया चित्रांकन।
  • विषय :- राजसी वैभवपूर्ण जीवन, महफिल, उद्यान विहार, रनिवास प्रेमलीला, धार्मिक चित्र, शिकार व युद्ध के दृश्य, लोकदेवताओं एवं प्रेमाख्यानों का चित्रण, राधा-कृष्ण की लीलाएँ आदि।
  • शेखावटी के भित्ति चित्रों में लोकजीवन की झाँकी अधिक देखने को मिलती है।

भित्ति चित्रण की विधियाँ

फ्रेस्कोबुनो :- ताजी पलस्तर की हुई नम भित्ति पर किया गया चित्रण। राजस्थान में इस पद्धति को ‘आरायश’ या ‘आलागीला’ पद्धति कहा जाता है। शेखावटी में आरायश को ‘पणा’ कहा जाता है।

फ्रेस्को सेको – चित्रण :- इस विधि में पलस्तर की हुई मिट्‌टी को पूर्ण रूप से सूखने के बाद चित्रण कार्य किया जाता है।

साधारण भित्ति चित्रण :- वह चित्रण जो सीधे ही किसी भी भित्ति पर किया जाता हैं।

कोटा की झाला हवेली आखेट चित्रों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

शेखावटी क्षेत्र के भित्ति चित्रण में कत्थई, नीले व गुलाबी रंग की प्रधानता है। ‘बलखाती बालों की लट का एक और अंकन’ स्त्री चित्रण में शेखावटी की मुख्य विशेषता है।

भित्ति चित्र तैयार करने हेतु ‘राहोली’ का चूना अराइशी चित्रण के लिए सर्वोत्तम माना जाता है।

कोटा में गढ़ के समीप स्थित ‘बड़े देवताओं की हवेली’ भित्ति चित्रों के लिए विख्यात है।

शेखावटी को भित्ति चित्रों के कारण इसे ओपन आर्ट गैलेरी कहा जाता है।

आमेर मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा 1639 ई. में निर्मित गणेशपोल भित्ति चित्रों एंव अलंकरणों के लिए जानी जाती है।

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