राजस्थान में रीति-रिवाज व प्रथाएँ
भारत के अन्य प्रदेशों से आकर यहां बसने वाले लोगों के अतिरिक्त यहां की सभी जातियों के रीति-रिवाज मूलतः वैदिक परम्पराओं से संचालित होते आये हैं। यहां तक कि मुसलमानों तथा भील, मीणा, डामोर, गरासिया, सांसी इत्यादि आदिम जातियां भी हिन्दुओं के रूढ़िगत रीति-रिवाजों से अप्रभावित नहीं हैं। राजस्थान के हर प्रसंग के लिये निश्चित रिवाजों में सरसता और उपयोगिता है, वह इसके सामाजिक जीवन की उच्च भावना की द्योतक है।
राजस्थान के रीति-रिवाजों की सबसे बड़ी विशेषता उनका सादा व सरल होना है। सामन्ती व्यवस्था होने से राजस्थान के रीति-रिवाजों पर भी इनकी छाप रही है। इसी व्यवस्था के प्रभाव से यहां बाल-विवाह, वृद्ध विवाह व अनमेल विवाह का भी प्रचलन रहा है। राजपूतों में कन्या के साथ डावरियाँ भी दहेज में दिये जाने की परम्परा रही है। परन्तु अब प्रायः यह समाप्त हो गई है। मेहन्दी राजस्थान की नारियों की हथेली का विशेष श्रृंगार है।
राजस्थान के रीति-रिवाज तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं
- राजस्थान के मृत्यु संबंधी रीति-रिवाज
- राजस्थान के विवाह संबंधी रीति-रिवाज
- राजस्थान के जन्म संबंधी रीति-रिवाज
रीति-रिवाज
- नांगल- मकान निर्माण के बाद नवनिर्मित गृह के प्रवेश की रस्म नांगल कहलाती है।
- जनेऊ प्रथा- ब्राह्मण जाति में बच्चों के जनेऊ डालने की प्रथा है। इसे यज्ञोपवित भी कहा जाता है।
- कूकड़ी की रस्म – सांसी जनजाति की रस्म। इस रस्म के तहत विवाहोपरांत युवती को अपनी चारित्रिक पवित्रता की परीक्षा देनी होती है।
- धारी संस्कार – सहरिया जनजाति का मृत्यु से संबंधित संस्कार। यह संस्कार मृतक के मृत्यु के तीसरे दिन किया जाता है जिसमें एक कुण्डे के नीचे दीपक जलाया जाता है जहाँ किसी जानवर का पदचिह्न बनता है जिससे यह माना जाता है कि मृत व्यक्ति ने उसी रूप में जन्म लिया है।
- टीका-दौड़ – नए राजा के गद्दी पर बैठते ही पड़ौसी राज्य पर हमला करने की रस्म।
राजस्थान के रीति-रिवाजों
- हलाणौ – प्रथम प्रसव के बाद कन्या को दिया जाने वाला सामान व विदाई।
- धरेजा – अविवाहित व्यक्ति या विधुर द्वारा अविवाहित स्त्री या विधवा से आपसी सहमति से विवाह करना।
- ढींगोली – स्त्रियों का एक व्रत।
- पाती माँगना – इस में धार्मिक परम्पराओं के तहत देवी-देवताओं से आशीर्वाद माँगा जाता है।
- हरवण गायन – वागड़ क्षेत्र (डूँगरपुर-बाँसवाड़ा) में मकर संक्रान्ति परगायी जाने वाली श्रवण कुमार की गाथा।
- सावळ – कीर जाति में खेत से सर्वप्रथम तोड़कर बहन-बेटी को दी जाने वाली वस्तु।
- पंचांग श्रवण – मकर संक्रान्ति पर हाड़ौती क्षेत्र में विशेषकर गागरौण व आस-पास के क्षेत्र में ज्योतिषों द्वारा अपने यजमानों को सुनाया जाने वाला पंचांग।
- पुरणाई – माँगलिक अवसरों पर गोबर आदि से आँगन लेपने की क्रिया।
- गाघराणौ :- पुनर्विवाह की प्रथा, विशेषकर देवर के साथ।
- ओजू (वजू) – नमाज पढ़ने से पूर्व शुद्धि के लिए हाथ-पाँव धोने की क्रिया।
- अंगवारौ – किसानों द्वारा पारस्परिक सहयोग से कृषि कार्य करने की प्रथा।
- देवरघट्टा – बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी का विवाह छोटे भाई के साथ कर दिया जाता है तो इसे देवरघट्टा विवाह कहते हैं।
- तागा करना – आत्महत्या के शरीर पर शस्त्र से घाव करना।
प्रथाएँ
बाल विवाह
यह छोटी उम्र में ही विवाह कर देने की प्रथा है, जिसका प्रचलन निम्न जातियों में अधिक है। प्रतिवर्ष राजस्थान में अक्षय तृतीया पर हजारों बच्चे विवाह बंधन में बांध दिए जाते हैं। बाल विवाह का प्रचलन गुप्तकाल से माना जाता है। बाल विवाह का प्रथम लिखित प्रमाण बाणभट्ट की पुस्तक हर्षचरित्त से माना जाता है।
- आखातीज का सावा शादियों के लिये उत्तम माना जाता है। यह अबूझ सावा के रूप में प्रसिद्ध हैं।
- राजस्थान में सर्वप्रथम बाल विवाह पर रोक जोधपुर रियासत ने 1885 ई. में लगवाई।
अजमेर के श्री हरविलास शारदा ने 1929 ई. में बाल विवाह निरोधक अधिनियम प्रस्तावित किया, जो ‘शारदा एक्ट‘ के नाम से प्रसिद्ध है। 1 अप्रैल, 1930 से यह अधिनियम समस्त देश में लागू हुआ। शारदा एक्ट में विवाह योग्य उम्र के लिए लड़के की आयु 18 वर्ष तथा लड़की की आयु 14 वर्ष तय की गई।
इस अधिनियम से पूर्व ‘वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा‘ के निर्णयानुसार जोधपुर राज्य के प्रधानमंत्री सर प्रतापसिंह ने सन् 1885 में बाल विवाह प्रतिबंधक कानून बनाया था। अब शारदा एक्ट को समाप्त कर नया अधिनियम-बाल विवाह निरोध अधिनियम लागू कर दिया गया है। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006 को 10 जनवरी 2007 से अधिसूचित किया गया। यह कानून 1 नवम्बर, 2007 से लागू हुआ। वर्तमान में लड़कों के लिए विवाह योग्य उम्र 21 वर्ष एवं लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई है।
सती प्रथा
पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी द्वारा उसके शव के साथ चिता में जलकर मृत्यु को वरण करना ही सती प्रथा कहलाती थी। मध्यकाल में अपने सतीत्व व प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने हेतु यह प्रथा अधिक प्रचलन में आई। धीरे-धीरे इसने एक भयावह रूप धारण कर लिया तथा स्त्री की इच्छा के विपरीत परिवार की प्रतिष्ठा ओर मर्यादा बनाए रखने के लिए उसे जलती चिता में धकेला जाने लगा। राजस्थान में इस प्रथा का सर्वाधिक प्रचलन राजपूत जाति में था।
राजस्थान में सर्वप्रथम 1822 ई. में बूंदी रियासत में विष्णुसिंह ने सतीप्रथा को गैर कानूनी घोषित किया गया। बाद में राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई. में सरकारी अध्यादेश से पहले बंगाल में तथा फिर पूरे भारत में इस प्रथा पर रोक लगाई। यह कानून बनने के बाद 1830 ई. में अलवर रियासत ने इस प्रथा पर सर्वप्रथम रोक लगाई। भारत में सती प्रथा का प्रथम उल्लेख गुप्त काल के एरण अभिलेख से मिलता है। राजस्थान में सती प्रथा का प्रथम प्रमाण घटियाला अभिलेख (जोधपुर) में मिला है जो 861 ई. का है। इस अभिलेख के अनुसार राणुका की मृत्यु पर उसकी पत्नी संपल देवी सती हुई थी। अकबर ने भी सती प्रथा को रोकने के प्रयास किए।
राजस्थान में सन् 1987 के देवराला (सीकर) सती काण्ड, जिसमें रूपकंवर अपने पति श्रीमालसिंह शेखावत के पीछे सती हुई थी, के बाद सती निवारण अधिनियम पारित किया गया। जिसके तहत सती प्रथा को प्रोत्साहित करने वाले सभी मेले, कार्यक्रमों व साहित्य पर रोक लगा दी गई।
- सती प्रथा को ‘सहमरण‘, ‘सहगमन‘ या ‘अन्वारोहण‘ भी कहा जाता है
- मोहम्मद तुगलक पहला शासक था, जिसने सती प्रथा पर रोक हेतु आदेश जारी किए थे।
अनुमरण
पति की मृत्यु कहीं अन्यत्र होने व वहीं पर उसका दाह संस्कार कर दिए जाने पर उसके किसी चिन्ह के साथ अथवा बिना किसी चिन्ह के ही उसकी विधवा के चितारोहण को ‘अनुमरण‘ कहा जाता है। ऐसी सतियों को ‘महासती‘ भी कहा जाता है। मृतपुत्र के साथ भी स्त्रियां सती होती थी, जिन्हें ‘मां-सती‘ कहा जाता था।
जौहर प्रथा
युद्ध में जीत की आशा समाप्त हो जाने पर शत्रु से अपने शील-सतीत्व की रक्षा करने हेतु वीरांगनाएं दुर्ग में प्रज्जवलित अग्निकुण्ड में कूदकर सामूहिक आत्मदहन कर लेती थी, जिसे ‘जौहर करना‘ कहा जाता था। राजस्थान में प्रथम जौहर 1301 ई. में रणथम्भौर दुर्ग में हम्मीरदेव की पत्नी रंगदेवी के नेतृत्व में हुआ। यह एक जल जौहर था।
डावरिया
राजा महाराजा व जागीरदार पहले अपनी लड़की की शादी में दहेज के साथ कुछ कुंवारी कन्याएं भी देते थे, जिन्हें डावरिया कहा जाता था।
केसरिया करना
राजपूत योद्धाओं द्वारा पराजय की स्थिति में पलायन करने या शत्रु के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बजाय केसरिया वस्त्र धारण कर दुर्ग के द्वारा पर भूखे शेर की भांति शत्रु पर टूट पड़ना व उन्हें मौत के घाट उतारते हुए स्वयं भी वीर गति को प्राप्त हो जाना ‘केसरिया करना‘ कहा जाता था।
समाधि प्रथा
इस प्रथा में कोई पुरुष या साधु महात्मा मृत्यु को वरण करने के उद्देश्य से जल समाधि (किसी तालाब में पानी में बैठकर अपनी जान दे देना) या भू-समाधि (जमीन में गड्ढ़ा खोदकर बैठ जाना व उसे मिट्टी से भर देना) ले लिया करते थे। यह कृत्य आत्महत्या के समान था लेकिन ऐसे पुरुषों को जनता बड़ी श्रद्धा से देखती थी और उनकी पूजा करती थी।
सर्वप्रथम जयपुर के पॉलिटिकल एजेण्ट लुडलो के प्रयासों से सन् 1844 में जयपुर राज्य ने समाधि प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। इसे पूर्णरूपेण समाप्त करने के लिए सन् 1861 में एक नियम पारित किया गया।
नाता
राजस्थान में नाता अथवा ‘पुनर्विवाह‘ की प्रथा भी है। इस प्रथा के अनुसार पत्नी अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह कर सकती है। विधवा भी अपनी पसन्द के व्यक्ति के साथ रह सकती है। यह प्रथा आदिवासियों में अधिक प्रचलित है। पर्दा प्रथा का उदय गुप्तकाल में हुआ था।
त्याग प्रथा
राजस्थान में राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर चारण, भाट, ढोली इत्यादि लड़की वालों से मुंह मांगी दान-दक्षिणा प्राप्ति के लिए हठ करते थे, जिसे ‘त्याग‘ कहा जाता था। मध्यकालीन राजस्थान में यह त्याग स्वेच्छापूर्वक अपने पद व स्थिति के अनुसार दिया जाता था। लेकिन समय के साथ-साथ यह प्रथा बोझ बन गई और इसका भार उठाना असहनीय बन गया। त्याग की इस कुप्रथा के कारण भी प्रायः कन्या का वध कर दिया जाता था।
सर्वप्रथम 1841 ई. में जोधपुर राज्य में ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से नियम बनाकर ‘त्याग प्रथा‘ को सीमित करने का प्रयास किया गया। बाद में ‘वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा‘ ने इस कुप्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया।
अहेड़ा का शिकार
राजपूताने में होली के दिन शिकार करने के रिवाज को अहेड़ा का शिकार कहा जाता था।
डाकन प्रथा
राजस्थान की कई जातियों विशेषकर भील और मीणा जातियों में स्त्रियों पर ‘डाकन‘ होने का आरोप लगाकर उन्हें मार डालने की कुप्रथा व्याप्त थी। प्रचलित अंधविश्वास के अनुसार ‘डाकन‘ उस स्त्री को कहा जाता था जिसमें किसी मृत व्यक्ति की अतृपत आत्मा प्रवेश की गई हो। ऐसी स्त्री समाज के लिए अभिशाप मानी जाती थी। जो यातनाएं दे-देकर मार दी जाती थी। यह एक अत्यंत ही अमानवीय क्रूर प्रथा थी।
सर्वप्रथम अप्रैल, 1853 ई. में मेवाड़ में महाराणा स्वरूप सिंह के समय में मेवाड़ भील कोर के कमाण्डेण्ट जे.सी. बुक ने खैरवाड़ा (उदयपुर) में इस प्रथा को गेर कानूनी घोषित किया।
पान्या की गोठ
मेवाड़ क्षेत्र में जहां बढ़िया मक्की पैदा होती थी वहां पान्या की गोठ का प्रचलन था। मक्की के आटे की रोटी थेप कर उसे ढ़ाक के पत्तों के बीच में दबाकर उपलों की गर्म राख में रख दिया जाता था रोटी बनकर तैयार हो जाती थी फिर दही या दूध के साथ इसे खाया जाता था।
लोह
विवाह या सगाई के मौके पर सगे संबंधी द्वारा बकरे को कटाया जाना लोह कहलाता है।
कन्या वध
राजस्थान में विशेषतः राजपूतों में प्रचलित इस प्रथा में कन्या के जन्म लेते ही उसे अफीम देकर या गला दबाकर मार दिया जाता था। कन्या-वध समाज में अत्यंत ही क्रूर व भयावह कृत्य था। हाड़ौती के पॉलिटिकल एजेण्ट विलकिंसन के प्रयासों से लार्ड विलियम बैंटिक के समय में राजस्थान में सर्वप्रथम कोटा राज्य में सन् 1833 में तथा बूंदी राज्य में 1834 ई. में कन्या वध करने को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया।
- सूला- कबाब की किस्म का यह व्यंजन मांसाहारियों का प्रिय व्यंजन था।
खाजरू
राजपूत लोगों द्वारा गोठ या पार्टी हेतु पाले गये बकरों को काटना खाजरू कहलाता है।
दहेज प्रथा
दहेज वह धन या सम्पत्ति होती है जो विवाह के अवसर पर वधू पक्ष द्वारा विवाह की आवश्यक शर्त के रूप में वर पक्ष को दी जाती है। वर्तमान में इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है। इसने लड़कियों के विवाह को अति दुष्कर कार्य बना दिया है। यद्यपि सन् 1961 में भारत सरकार द्वारा दहेज निरोधक अधिनियम भी पारित कर लागू कर दिया गया लेकिन इस समस्या का अभी तक कोई निराकरण नहीं हो पाया है।
पर्दा प्रथा
प्राचीन भारतीय संस्कृति में हिन्दू समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था लेकिन मध्यकाल में बाहरी आक्रमणकारियों की कुत्सित व लोलुप दृष्टि से बचाने के लिए यह प्रथा चल पड़ी, जो धीरे-धीरे हिन्दू समाज की एक नैतिक प्रथा बन गई। स्त्रियों को पर्दे में रखा जाने लगा। वह घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गई। राजपूत समाज में तो पर्दा प्रथा अत्यंत कठोर थी। मुस्लिम समाज में यह एक धार्मिक प्रथा है। 19वीं शताब्दी में कुछ समाज सुधारकों ने इस प्रथा का विरोध किया, जिनमें स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रमुख थे। पर्दा प्रथा को दूर करने हेतु उन्होंने स्त्री शिक्षा पर बल दिया।
विधवा विवाह
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से लॉर्ड डलहौजी ने 1856 ई. में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाया। सवाई जयसिंह, स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं संत जाम्भोजी द्वारा भी विधवा विवाह को बढ़ावा देने का प्रयास किया। श्री चांदकरण शारदा ने ‘विधवा विवाह’ नामक पुस्तक लिखी।
चारी प्रथा
खेराड़ क्षेत्र (भीलवाड़ा – टोंक) में प्रचलित प्रथा। इस प्रथा में लड़की के माता-पिता वर पक्ष से कन्या मूल्य लेते हैं।
दास प्रथा
दास प्रथा का सर्वप्रथम उल्लेख कौटिल्य (चाणक्य) ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में किया है। कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। 1562 ई. में अकबर ने इस प्रथा पर रोक लगाई थी। 1832 ई. में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने दास निवारक अधिनियम बनाया। इस प्रथा पर सर्वप्रथम 1832 ई. में कोटा-बूँदी रियासत में रोक लगाई।
आन्न प्रथा
इस प्रथा में राणा के प्रति स्वामी भक्ति की शपथ लेनी पड़ती थी। 1863 ई. में मेवाड़ में इस प्रथा को बन्द कर दिया।
नौतरा प्रथा
वागड़ (डूँगरपुर-बाँसवाड़ा) में प्रचलित प्रथा। इस प्रथा में व्यक्ति को आर्थिक सहायता की जाती है।
चौथान
कोटा में मानव व्यापार पर लिया जाने वाला कर। औरतों व लड़के-लड़कियों का क्रय-विक्रय नामक कुप्रथा पर सर्वप्रथम रोक कोटा राज्य में 1831 ई. में लगाई गई थी।
सागड़ी प्रथा
पूंजीपति या महाजन अथवा उच्च कुलीन वर्ग के लोगों द्वारा साधनहीन लोगों को उधार दी गई राशि के बदले या ब्याज की राशि के बदले उस व्यक्ति या उसके परिवार के किसी सदस्य को अपने यहाँ घरेलू नौकर के रूप में रख लेना बंधुआ मजदूर प्रथा (सांगड़ी प्रथा) कहलाती है। राजस्थान में 1961 ई. में ‘सागड़ी प्रथा निवारण अधिनियम’ पारित किया गया।
छेड़ा फाड़ना
जो भील अपनी स्त्री का त्याग करना चाहता है, वह अपनी जाति के पंच के लोगों के सामने नई साड़ी के पल्ले में रुपये बाँधकर उसको चौड़ाई की तरफ से फाड़कर स्त्री को पहना देता है। यह भील जनजाति में तलाक की एक प्रथा है।
नातरा / आणा प्रथा
आदिवासियों में विधवा स्त्री का पुनर्विवाह की प्रथा।
लोकाई / कांदिया
आदिवासियों में दिया जाने वाला मृत्यु भोज।
- दापा – आदिवासी समुदायों में वर पक्ष द्वारा वधू के पिता को दिया जाने वाला वधू मूल्य।
- जवेरा – आदिवासी समुदाय द्वारा नवरात्रा अनुष्ठान समाप्ति पर निकाला जाने वाला जुलूस।
- मौताणा – किसी आदिवासी की किसी दुर्घटना या अन्य कारण से मृत्यु हो जाने पर आदिवासी समाज के पंचों द्वारा आरोपी से वसूली जाने वाली क्षतिपूर्ति राशि।
- हमेलो – जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग एवं माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध संस्थान (उदयपुर) द्वारा आयोजित किया जाने वाला आदिवासी लोकानुरंजन मेला।
- बयौरी – आदिवासी जनजाति में दिन के भोजन के बाद विश्राम का समय।
गाधोतरो
जब किसी गाँव में वहाँ के निवासियों से परेशान होकर कोई पिछड़ी जाति गाँव छोड़ने का निर्णय लेती थी तो उस जाति के लोग गाय के सिर की पत्थर की मूर्ति उस गाँव में स्थापित कर जाति के सभी लोग गाँव छोड़ देते हैं, जिसे गाधोतरो कहा जाता है।
- हाथी वैण्डो प्रथा – भील समाज में प्रचलित वैवाहिक परम्परा इसमें पवित्र वृक्ष पीपल, साल, बाँस व सागवान के पेड़ों को साक्षी मानकर हरज व लाडी (दूल्हा-दुल्हन) जीवनसाथी बन जाते हैं।
- कोंधिया / मेक – गरासिया जनजाति में प्रचलित मृत्युभोज।
- आणा / नातरा – गरासिया जनजाति में विधवा विवाह की प्रथा।
- अनाला भोर भू प्रथा – गरासिया जनजाति में प्रचलित नवजात शिशु की नाल काटने की प्रथा।HighlightNoteWeb Search