mygkbook की इस पोस्ट में हम आप को मध्यकाल में राजस्थान ( राजपुताना ) का प्रशासन, परगने का प्रशासन, सामंत वर्ग, गाँव का प्रशासन, मध्यकालीन न्याय व्यवस्था, मध्यकालीन तोपखानों, rajasthan ki madhyakaleen prashasanik vyavstha के बारे में विस्तार से जानकारी प्रदान करगे।
केन्द्रीय प्रशासन
- मध्यकाल में राजपुताना के शासक अपनी-अपनी रियासतों में स्वतंत्र तथा प्रभुतासम्पन्न होते थे।
- ये शासक अनेक प्रकार की उपाधियां जैसे- महाराजाधिराज, राजराजेश्वर आदि धारण करते थे। राज्य का शासन चलाना, उच्च पदों पर नियुक्ति, सेना का संचालन, अन्य राज्यों से संधि, न्याय का वितरण तथा दण्ड देने जैसी शक्तियां शासक में निहित होती थी।
- राज्य की रक्षा का भार शासक पर ही हाेने के कारण इन्हें ‘खुम्माण’ पद से विभूषित किया जाता था।
- शासक राज्य की सुरक्षा, प्रजाहित के अलावा साहित्य आदि में रूचि रखते थे। वे कला, साहित्य, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग की उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते थे।
शासक वर्ग से संबंधित राजकीय आदेश
- फरमान – मुगल बादशाहों द्वारा जारी शाही।
- परवाना – महाराजा द्वारा अपने अधीनस्थ को जारी किया जाने वाला आदेश।
- निशान – शाही परिवार के सदस्य द्वारा किसी मनसबदार को मुहर के साथ जारी किया जाने वाला आदेश।
- खरीता – एक राजा का दूसरे राजा के साथ किया जाने वाला पत्र व्यवहार।
- अर्जदाश्त – राजपूत राजाओं द्वारा सम्राट या शहजादों को भेजा जाने वाला लिखित प्रार्थना पत्र।
- मन्सूर – बादशाह की उपस्थिति में शहजादे द्वारा जारी शाही आदेश।
- रुक्का – राज्य के अधिकारियों के मध्य हाेने वाला पत्र व्यवहार।
- वाक्या – इसमें शासक की व्यक्तिगत तथा राजकार्य से सम्बन्धित गतिविधियां, राजपरिवार के सदस्यों की सामाजिक रस्मों, व्यवहार का वर्णन अंकित किया जाता था।
- सनद – मुगल बादशाह द्वारा अपने अधीनस्थ को जागीर प्रदान करने की स्वीकृति।
- वकील रिपोर्ट – मुगल दरबार में जागीरदारों द्वारा अपने प्रतिनिधि नियुक्त किये जाते थे, इन्हें वकील कहा जाता था। यह वकील अपनी रियासत के जागीरदार से संबंधित सूचना भेजता था जिसे वकील रिपोर्ट कहा जाता था।
मंत्री वर्ग
- राज्य में शासक ही सर्वोपरि होता था लेकिन उसकी सहायता के लिए मंत्रिमण्डल का उल्लेख मिलता है। मंत्रिमण्डल के सदस्यों की नियुक्ति शासक द्वारा की जाती थी।
- यह नियुक्ति वंशानुगत या बाहर के सदस्यों में से की जाती थी।
- मेवाड़ के मंत्री वर्ग से संबंधित उल्लेख ‘सारणेश्वर शिलालेख’ में मिलता है, जिसमें अमात्य-मुख्यमंत्री, संधिविग्रहिक-युद्ध और संधि का मंत्री, अक्षपटलिक-पुरालेख मंत्री, भिषगाधिराज-मुख्य वैद्य आदि मंत्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
- राज्य में शासक के बाद प्रधान का पद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। यह शासन, सैन्य तथा न्याय से संबंधित कार्यों में राजा की सहायता करता था।
- राजपूताना के कुछ राज्यों जैसे मारवाड़ में भूमि अनुदान पर प्रधान के हस्ताक्षर होना आवश्यक था। जयपुर रियासत में प्रधान को मुसाहिब, कोटा व बूंदी में दीवान, मेवाड़ व मारवाड़ में प्रधान, बीकानेर में मुखत्यार, सलूम्बर में भांजगड़ कहा जाता था।
- दीवान मुख्य रूप से राजस्व से संबंधित विभाग का अध्यक्ष होता था। इसका मुख्य कार्य कर संग्रह तथा धन से संबंधित होता था।
- राज्य में नियुक्तियां, पदोन्नति तथा स्थानांतरण आदि में दीवान की सहमति ली जाती थी। दीवान की स्वतंत्र मुहर होती थी तथा उस पर दीवान का नाम लिखा जाता था।
- इसके पास सभी विभागों की आमदनी तथा खर्च का ब्यौरा, राजस्व से संबंधित कागजात होते थे। दीवान के दफ्तर में इन सब कागजात को सुरक्षित रखा जाता था जिसे दीवान-ए-हजूरी कहा जाता था।
- दीवान राजस्व से संबंधित सूचनाओं से राजा को अवगत करवाता था।
- महकमा-ए-बकायात – यह दीवान के दफ्तर में होता था जिसका कार्य परगनों के अधिकारियों को राजस्व की दरें, बकाया वसूली तथा दीवान-ए-हजूरी में भेजी जाने वाली राशि के बारे में दिशा-निर्देश जारी करना होता था।
- बक्शी मुख्य रूप से सैन्य विभाग का अध्यक्ष होता था जो सेना के वेतन, रसद, सैनिकों की भर्ती, प्रशिक्षण आदि को देखता था। यह सैनिकों का वेतन भी निश्चित करता था। यह युद्ध में घायल सैनिकों एवं पशुओं के उपचार से संबंधित व्यवस्था करता था।
- इसके सहायक अधिकारी नायब-बक्शी कहलाते थे तथा किलेदार व खबर नवीस आदि अधिकारी इसके अधीन होते थे। मुशरिफ, जखीरा, दरोगा, तहसीलदार जखीरा, तोपखाना आदि बक्शी के अधीन होते थे।
- खान सामां – यह दीवान के अधीन होता था। राजदरबार से संबंधित सभी कार्यों से उसका संबंध होता था। राजपरिवार के अधिक निकट होने से यह अधिक प्रभावशाली व्यक्ति समझा जाता था। इसका कार्य राजकीय विभागों से संबंधित सामान की खरीद करना तथा उनका संग्रह करना था।
- कोतवाल – राज्य की राजधानी एवं बड़े कस्बाें में कोतवाल नामक अधिकारी नियुक्त होते थे। जिनका प्रमुख कार्य नगर में शांति व्यवस्था बनाये रखना होता था। इसके मुख्य कार्य चोरी डकैती का पता लगाना, चौकसी का प्रबंध करवाना, मार्गों की देखभाल करना, नापतौल पर नियंत्रण रखना तथा साधारण विवाद निपटाना आदि थे।
- खजांची – खजांची का कार्य राज्य में रुपये जमा करने तथा खर्च करने से संबंधित जानकारी रखना होता था। मेवाड़ में इस प्रकार के अधिकारी को कोषपति कहा जाता था।
- ड्योढ़ीदार – इसका कार्य महल की सुरक्षा एवं निरीक्षण करना होता था।
- मुत्सद्दी – इसका कार्य राजस्थान की रियासतों में प्रशासन का संचालन करना था।
- दरोगा-ए-सायर – इसका कार्य दान वसूली करना था।
- वाक्या-नवीस – सूचना भेजने के विभाग से संबंधित।
- सामंत वर्ग – सामंत वर्ग शासकों के अधीन होता था। सामंत वर्ग अपने शासक को युद्ध के समय सैनिक सहायता प्रदान करते थे। सामंत वर्ग शासक के अधीन होने के कारण उन्हें कर देता था जो राज्य की आर्थिक सम्पन्नता के लिए आवश्यक था।
परगने का प्रशासन
- राज्य को प्रशासन की सुविधा के लिए परगनों में बांटा जाता था। राज्य से छोटी इकाई परगना होती थी जिसमें ग्राम, मण्डल, दुर्ग आदि आते थे।
- ग्राम का प्रमुख अधिकारी ग्रामिक, मण्डल का मण्डलपति तथा दुर्ग का दुर्गाधिपति तथा तलारक्ष कहलाता था।
- जयपुर रियासत में परगना अधिकारियों की तीन श्रेणियां होती थी जिसकी प्रथम श्रेणी में केवल आमिल को शामिल किया जाता था।
- दूसरी श्रेणी में फौजदार, कोतवाल, पोतदार, तहसीलदार, मुशरिह तथा तीसरी श्रेणी में महीनदार शामिल थे।
- प्रतिदिन वेतन प्राप्त करने वाले मजदूरों को रोजिनदार कहा जाता था।
- आमिल – आमिल परगने का सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होता था। आमिल का मुख्य कार्य परगने में भू-राजस्व की दरें लागू करना तथा भू-राजस्व वसूल करना था।
- इस कार्य में कानूनगो, पटेल, पटवारी तथा चौधरी आदि आमिल की सहायता करतेे थे। आमिल के अन्य कार्य कृषि को बढ़ावा देना, किसानों के हितों की रक्षा करना तथा अकाल पड़ने पर किसानों को ऋण देना आदि थे।
- हाकिम – इसकी नियुक्ति सीधे महाराजा द्वारा की जाती थी। यह परगने में शासकीय तथा न्याय संबंधी कार्यों का सर्वोच्च अधिकारी होता था।
- फौजदार – यह परगने का दूसरा सर्वोच्च अधिकारी होता था जो पुलिस तथा सेना का अध्यक्ष होता था। परगने की सीमा की सुरक्षा का दायित्व इसी पर होता था। यह राजस्व वसूली में अमीन, अमलगुजार तथा आमिल की सहायता करता था। फौजदार द्वारा डाकुओं के विरूद्ध स्वयं सेना लेकर अभियान पर जाना मारवाड़ में ‘बाहर चढ़ना’ कहलाता था।
- ओहदेदार – बड़े परगनों में ओहदेदार नामक अधिकारी भी होता था जो शासन कार्य में हाकिम की सहायता करता था। इनके सहयोगी अधिकारियों में शिकदार, कानूनगो तथा खजांची आदि होते थे।
- खुफिया नवीस – यह परगने की रिपोर्ट दीवान के पास भेजता था।
- पोतदार – यह परगने की आय तथा व्यय का हिसाब रखता था।
गाँव का प्रशासन
- गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई थी जिसे प्रशासनिक रूप से मौजे कहा जाता था। पहले से बसे गाँव को ‘असली’ तथा नये बसे गाँव को ‘दाखिली’ कहा जाता था।
- गाँव या गाँव के समूह का मुिखया ग्रामिक कहलाता था। मेवाड़ में जिस गाँव में राजपूत अधिक होते थे उसे ‘गाड़ा’, भील तथा मीणों की अधिक जनसंख्या वाले गाँव को ‘गमेती‘ तथा महाजनों की अधिक जनसंख्या वाले गाँव या बस्ती को ‘पटवारी’ कहा जाता था।
- गाँव में ग्राम पंचायत होती थी, जिसमें गाँव का मुखिया तथा अन्य प्रमुख लोग मिलकर न्याय करना, धार्मिक विषयों पर विचार करना तथा झगड़े निपटाना आदि कार्य करते थे।
- कनवारी – खेत के रक्षक
- दफेदार – राज्य का लेखा-जोखा रखने वाला
- तलवाटी – उपज तौलने वाला
गाँव के स्वायत शासन का स्वरूप
- संघ – राजस्थान के गाँवों में संघ नामक संस्था होती थी जिसका कार्य धार्मिक उत्सवों, धार्मिक यात्राओं, प्रवचनों तथा धार्मिक संस्थाओं के संबंध मेें निर्णय लेना था।
- गोष्ठी – इसका कार्य धार्मिक संस्थाओं की देखरेख करना होता था। यह व्यवस्था मंदिरों तथा विशेष व्यवसायों के लिए भी होती थी।
- पंचकुल – यह एक अर्द्धराजनीतिक एवं अर्द्ध सामाजिक स्थानीय संस्था थी। इसका प्रमुख कार्य भूमि से संबंधित होता था। राज्य द्वारा जारी भूमि से संंबंधित आदेशों की पालना करवाना पंचकुल का कार्य था।
- पंचायत – पंचायत का कार्य उसकी सीमा में होने वाले भूमि संबंधी विवादों पर फैसला करना तथा जन्म-मृत्यु की गणना के आंकड़े रखना था।
मध्यकालीन न्याय व्यवस्था
- मध्यकालीन न्याय व्यवस्था की विशेषता न्याय का सस्ता तथा शीघ्र होना था। इस समय दण्ड के प्रावधान कठोर नहीं थे। बड़े अपराध तथा से संबंधित विवादों पर अंतिम निर्णय राजा का होता था।
- खालसा क्षेत्र में हाकिमों द्वारा तथा जागीर में जागीरदारों द्वारा न्याय का कार्य किया जाता था। स्थानीय विवादों की सुनवाई पंचायत द्वारा की जाती थी।
- मध्यकाल में सामंत को ‘सरण’ का अधिकार प्राप्त था जिसके अन्तर्गत यदि कोई व्यक्ति सामंत की शरण में चला जाता था तो उसकी रक्षा करना सामंत का दायित्व होता था। किसी विवाद की जाँच करने वाले अधिकारी तलारक्ष, दंड पाशिक, आरक्षक आदि हाेते थे।
- साधानिक, धर्माधिकारी के समक्ष विवाद को रखा जाता था।
मध्यकाल में सेेना
- सैनिक संगठन मध्यकाल में सेेना दो भागों में विभाजित होती थी। किसी शासक की सेना को ‘अहदी’ तथा किसी दूसरे सामंत की सेना को ‘जमीयत’ कहते थे।
- शासक की सेना में सैनिकों की भर्ती, प्रशिक्षण तथा वेतन संबंधी कार्य दीवान तथा मीरबक्शी द्वारा किये जाते थे। जमीयत के लिए यह कार्य सामंत द्वारा किया जाता था।
- इस समय घाेड़ों को दागने की प्रथा प्रारंभ हो गई थी।
मुख्य रूप से सेना के दो भाग
- पैदल सैनिक – यह राजपूतों की सेना का बड़ा भाग होता था। पैदल सेना में तीर कमान, तलवार, कटार आदि का प्रयोग करने वाले सैनिक अहशमा सैनिक कहलाते थे। ऐसे अस्थायी सैनिक जो मालगुजारी वसूल करने के लिए भर्ती किये जाते थे, उन्हें सेहबन्दी सैनिक कहा जाता था।
- सवार – इसमें घुड़सवार तथा ऊंटसवार शामिल होते थे। यह सेना राजपूत सेना का आधार मानी जाती थी। ऐसे घुड़सवार सैनिक जिन्हें घोड़े, अस्त्र-शस्त्र आदि राज्य की ओर से दिये जाते थे उन्हें ‘बारगीर’ तथा जिन घुड़सवार सैनिकों को घोड़े, अस्त्र-शस्त्र आदि की व्यवस्था स्वयं को करनी होती थी उन्हें ‘सिलेदार’ कहा जाता था।
घोड़ों की संख्या के आधार पर घुड़सवारों की श्रेणियां
- यक अस्पा – जिस घुड़सवार के पास एक घोड़ा हो।
- दुअस्पा – जिस घुड़सवार के पास दो घोड़े हों।
- सिह अस्पा – जिस घुड़सवार के पास तीन घोड़े हों।
- निम अस्पा – जब दो घुड़सवारों के पास एक घोड़ा हो।
- घुड़सवारों में सर्वाधिक वेतन ‘काल्डा सवार’ को तथा उसके पश्चात् ‘ताजी सवार’, ‘रस्मी सवार’, ‘पडीर सवार’ तथा ‘जंगली सवार’ को दिया जाता था।
मध्यकालीन तोपखानों
- जिन्सी – यह भारी तोपें होती थी जिनसे दस सेर तक का गोला फेंका जा सकता था इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए कई बैलों की आवश्यकता होती थी। इन्हें रामचंगी भी कहते थे।
- दस्ती – यह हल्की तोपें होती थी।
- व्यक्ति की पीठ पर रखकर ले जाये जाने वाला तोपखाना ‘नरनाल’,
- ऊंट के माध्यम से ले जाये जाने वाला तोपखाना ‘शुतरनाल’
- तथा हाथी की पीठ पर रखकर ले जाये जाने वाला तोपखाना ‘गजनाल’ कहलाता था। पहिये वाली गाड़ी के माध्यम से ले जाये जाने वाला तोपखाना ‘रहकला’ कहलाता था।
- तोप चलाने वाले को गोलन्दाज कहा जाता था।
- हस्ति सेना – राजपूत काल में हाथियों की सेना के लिए एक अलग विभाग बनाया गया जिसे ‘पीलखाना’ कहा जाता है।
- हाथी को चलाने वाला महावत कहलाता था। हल्दी घाटी के युद्ध में मानसिंह का हाथी मरदाना, प्रताप के हाथी लूणा व रामप्रसाद तथा अकबर के हाथी गजमुक्त व गजराज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- राजपुताना के शासकों ने आने वाले समय में अपनी सेना को आधुनिक ढंग से प्रशिक्षित करने का प्रयास किया।
- जयपुर शासक प्रतापसिंह ने फ्रेंच सेनानायक द बॉय तथा जर्मन सेनानायक समरू की सहायता प्राप्त की।
- जागीरदारी प्रथा/सामंत प्रथा कर्नल जेम्स टॉड ने भारत की सामंत व्यवस्था को इंग्लैण्ड की फ्यूडल व्यवस्था के समान स्वामी तथा सेवक पर आधारित बताई है।
- राजस्थान की सामंत व्यवस्था रक्त संबंध तथा कुलीय भावना पर आधारित प्रशासनिक एवं सैनिक व्यवस्था थी, स्वामी तथा सेवक के संबंधों पर आधारित नहीं।
- राजपुताना के शासकों ने अपने विशाल राज्य की व्यवस्था बनाये रखने तथा बाहरी आक्रमणों से राज्य की सुरक्षा करने के लिए अपने रिश्तेदारों/अधिकारियों को राज्य में से भूमि के छोटे-छोटे टूकड़े प्रदान किये। इन भूमि मालिकों को सामंत कहा गया।
- राज्य का केंद्रीय भाग स्वयं शासक के पास रहा तथा सीमावर्ती क्षेत्र उनके बंधु-बांधवों के साथ-साथ विश्वत सेनानायकों, उच्च अधिकारियों को दिये गए।
- राजपुताना के प्रत्येक राजपूत राज्यों का संगठन कुलीय भावना पर आधारित था।
- सामंत स्वयं को राज्य का संरक्षक एवं हिस्सेदार मानते थे।
- शासन कार्य तथा उत्तराधिकारी के चयन में सामान्यतया सामंतों की सहमति दी जाती थी। युद्ध के समय स्वयं को राज्य का संरक्षक मानते हुए सामंत राजा की सेना सहित सहायता करते थे।
सामंती व्यवस्था पर मुगल प्रभाव
- राजपूतों का संबंध मुगलों से होने के बाद सामंत व्यवस्था में परिवर्तन आया। इस समय मुगलों द्वारा टीका प्रथा शुरू की गई जिसके तहत राजपूत राज्यों में उत्तराधिकारी का चयन मुगल शासक पर निर्भर करता था।
- अब उत्तराधिकारी के चयन में सामंतों की कोई भूमिका नहीं रही। जब राजपूतों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली तब मुगल राजपूत राज्यों के संरक्षक बन गए तथा राज्य की सुरक्षा में भी सामंतों का महत्व खत्म हो गया।
- इस समय राजपूत राजाओं तथा सामंतों के संबंध स्वामी तथा सेवक के रूप में बदलने लगे।
उत्तराधिकारी शुल्क
- सामंत या जागीरदार की मृत्यु होने के बाद नये उत्तराधिकारी की गद्दीशिनी के समय नये उत्तराधिकारी से यह शुल्क लिया जाता था।
- यह शुल्क उस जागीर के पट्टे का नवीनीकरण करने के लिए लिया जाता था। यह शुल्क नहीं दिये जाने पर शासक द्वारा वह जागीर जब्त कर ली जाती थी।
- मुगल राजपूत संबंध स्थापित होने के पश्चात् सामंतों के उत्तराधिकार को नियंत्रित किया गया। अब नया उत्तराधिकारी शुल्क प्रारंभ किया गया जिसके तहत नया सामंत बनने पर शासक की उपस्थिति आवश्यक थी तथा इस समय शासक को हुक्मनामा, कैदखालसा, नजराना देने की प्रथा प्रारंभ की गई।
- यह शुल्क सर्वप्रथम जोधपुर शासक मोटा राजा उदयसिंह ने प्रारंभ किया जिसे पेशकशी कहा जाता था।
- नजराना ठिकाने के राजस्व का 1/7 भाग होता था।
- राजपूताना की जैसलमेर एकमात्र रियासत थी जहां से उत्तराधिकार शुल्क नहीं लिया जाता था।
- सामंतों के लिए नजराना के अलावा तागीरात तथा मुस्सदी खर्च नामक कर अनिवार्य कर दिये। राजकुमारी के विवाह पर सामन्तों से न्याैत नामक कर वसूल किया जाता था।
- हलबराड़ – कृषि कर,
- न्यौत बराड़ –विवाह का कर,
- गनीम बराड़-युद्ध के अवसर पर लिया जाने वाला कर। न्यौत बराड़ को दशोद भी कहा जाता था।
- रेख – जिस मापदंड के आधार पर सामंतों या जागीरदारों से राजकीय शुल्क वसूल किया जाता था उसे रेख कहा जाता था। रेख जागीर की वार्षिक आय थी।
- मारवाड़ में रेख शब्द का प्रयोग पट्टा रेख तथा भरतु रेख के रूप में किया जाता था।
- पट्टा रेख से तात्पर्य जागीर की अनुमानित वार्षिक आय से था जिसका उल्लेख शासक द्वारा प्रदान किये गए जागीर पट्टे में होता था। भरतु रेख वह राशि थी जो सामंत पट्टा रेख के आधार पर राज खजाने में जमा करवाता था।
- महाराजा सूरसिंह के काल में जागीरदारों के पट्टों में उनको दिए गये क्षेत्र की रेख अंकित की जाने लगी।
- 1755 ई. में महाराजा विजयसिंह द्वारा मतालबा नामक कर लेना प्रारंभ किया गया।
सामंतों का श्रेणीकरण
- मेवाड़ – मेवाड़ में सामंतों की तीन श्रेणियां थी जिन्हें ‘उमराव’ कहा जाता था। इसमें प्रथम श्रेणी के सामंत को सोलह, द्वितीय श्रेणी के सामंत को बत्तीस तथा तृतीय श्रेणी के सामंत को गोल कहा जाता था।
- मारवाड़
- राजवीस – राजपरिवार की तीन पीढ़ियों तक के संबंधी
- सरदार – ऐसे सामंत जो राजपरिवार से संबंधित नहीं थे।
- गनायत – बाहर से आये हुए सरदार।
- मुत्सद्दी – जागीर प्राप्त अधिकारी वर्ग।
- मारवाड़ में प्रथम श्रेणी में सभी सरदार राठौड़ सरदार थे जिन्हें ‘सिरायत’ कहा जाता था।
- जयपुर
- प्रथम कोटड़ी में राजवंश के निकट संबंधी शामिल थे जिन्हें राजावत कहा जाता था। इसके अलावा अन्य कोटड़ियां नाथावत, खंगारोत, बांकावत आदि थी।
- तेरहवीं कोटड़ी का संबंध गुर्जरों से था।
- कोटा
- देश के सामंत तथा दरबार के सामंत। देश के सामंत को राजकीय सेवा के बदले जागीर दी जाती थी।
- हाड़ौती
- देशथी – देश में रहकर रक्षा करने वाले सामंत ।
- रावजी – शासक के निकट संबंधी ।
- जूरथी – दरबार के साथ मुगल सेवा में रहने वाले सामंत।
- अमीरी उमराव – अन्य सरदार ।
- बीकानेर
- प्रथम श्रेणी में राव बीका के परिवार से संबंधित सामंत,
- दूसरी श्रेणी में अन्य रक्त संबंधी सामंत
- तृतीय श्रेणी में अन्य सरदार थे।
- जैसलमेर
- प्रथम श्रेणी डावी
- दूसरी श्रेणी जीवणी।
- भरतपुर
- यहां के सामंत सोलह कोटड़ी के ठाकुर कहलाते थे।
सामंतों के विशेषाधिकार
- मेवाड़ के दरबार में किसी सामंत के उपस्थित होने पर महाराणा द्वारा खड़े होकर उसका स्वागत किया जाता था जिसे ‘ताजीम’ कहते थे।
- ताजीम के समय महाराणा द्वारा सामंत के कंधों पर हाथ रखना ‘बाह पसाव’ कहलाता था।महाराणा के दाँयीं ओर उमराव बैठते थे जिसे बड़ी ओल तथा बाँयीं ओर राजकुमार बैठते थे जिसे कुंवरों की ओल कहा जाता था।
- मारवाड़ में दो प्रकार की ताजीमें – इकहरी तथा दोहरी दी जाती थी।
- इकहरी ताजीम के समय महाराजा सामंत के केवल आने पर खड़े होकर उनका अभिवादन ग्रहण करते थे, जबकि दोहरी ताजीम के समय महाराजा सामंत के आते समय तथा उनके लौटते समय खड़े होकर अभिवादन ग्रहण करते थे।
- सिरोपाव – मारवाड़ में वीरता, साहित्य, सेवा के लिए सिरोपाव देने की परम्परा प्रचलित थी। सिरोपाव से तात्पर्य विशेष वस्त्र या आभूषण देने से था।
- जब प्रथम श्रेणी के सामंत अपने शासक के राजदरबार में उपस्थित होते थे तब उनके लौटते समय शासक उन्हें सिरोपाव देकर विदा करता था। इसके अलावा शासक के राज्याभिषेक, राजवंश में विवाह तथा राजकुमार के जन्मदिन आदि अवसरों पर सामंतों को सिरोपाव दिया जाता था।
सिरोपाव
- हाथी सिरोपाव – इस सिरोपाव में सामंत को वस्त्रों के साथ कुछ धन भी दिया जाता था। विवाह के अवसर पर 849 रुपये दिये जाते थे। महाराजा के रिश्तेदारों के प्रति विशेष सम्मान प्रदर्शित करने हेतु 1000 रुपये दिये जाते थे। यह सबसे महत्त्वपूर्ण तथा सर्वोच्च सिरोपाव था।
- पालकी सिरोपाव – इस सिरोपाव के अन्तर्गत सामंत को 472 रुपये तथा विवाह के अवसर पर 553 रुपये दिये जाते थे।
- घोड़ा सिरोपाव – इसमें सामान्यतया 240 रुपये तथा विवाह के अवसर पर 340 रुपये दिये जाते थे।
- सादा सिरापोव – इसमें सामान्यतया 140 रुपये तथा विवाह के अवसर पर 240 रुपये दिये जाते थे।
- कंठी-दुपट्टा सिरोपाव – इसमें प्रथम श्रेणी के सामंत को 75 रुपये, द्वितीय श्रेणी के सामंत को 60 रुपये तथा तृतीय श्रेणी के सामंत को 45 रुपये दिये जाते थे।
- कड़ा, मोती, दुशाला तथा मदील सिरोपाव – इसमें प्रथम श्रेणी के सामंत को 121 रुपये, द्वितीय श्रेणी के सामंत को 85 रुपये तथा तृतीय श्रेणी के सामंत को 65 रुपये दिये जाते थे।
- कड़ा व दुशाला सिरोपाव – इस सिरोपाव के अन्तर्गत 37 रुपये दिये जाते थे।
- हाथ का कुरब – इस ताजीम के समय सामंत द्वारा महाराजा का घुटना छूने पर महाराजा द्वारा सामंत के कंधे पर हाथ लगाकर अपने हाथ को छाती तक लाते थे।
- सिर का कुरब – यह कुरब किन्हीं विशेष सरदारों को मिलती थी जो अन्य सरदारों से ऊपर बैठते थे।