महात्मा गाँधी (1894-1914 ई.) तक दक्षिण-अफ्रीका में रहने के बाद वर्ष 1915 में भारत आए।
गाँधीजी का राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रवेश
अहमदाबाद में साबरमती आश्रम की स्थापना की। 1917 ई. में चम्पारन (बिहार) में नील की खेती करने वाले किसानों के प्रति यूरोपियन अधिकारियों के अत्याचारों के विरोध में प्रथम सत्याग्रह किया।
महात्मा गांधी के आंदोलन – वर्ष 1920 में गाँधीजी की सलाह पर असहयोग आन्दोलन आरम्भ हुआ। इसके बाद से स्वतंत्रता प्राप्ति तक गाँधीजी राजनीतिक जीवन में बहुत सक्रिय रहे।
खिलाफत आन्दोलन
मुसलमानों की निष्ठा खलीफा के राज्य तुर्की के प्रति थी। वर्ष 1914 में रूस इंग्लैंड और फ्रांस ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, जिसमें तुर्की की हार हुई।
1919 ई. में तुर्की खलीफा का पद समाप्त कर दिया गया। इससे भारतीय मुसलमानों को गहरा धक्का लगा, फलस्वरूप वर्ष 1919 में भारत में अली बंधुओं (मुहम्मद अली और शौकत अली) ने खिलाफत कमेटी का गठन कर खिलाफत आन्दोलन आरम्भ किया।
हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का उत्कृष्ट समय समझकर गाँधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इसका समर्थन किया।
1922 ई. में यह आन्दोलन उस समय स्वतः ही समाप्त हो गया जब मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में तुर्की में खलीफा की सत्ता समाप्त कर दी गई और आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुरुआत की गई।
असहयोग आन्दोलन (1920-22 ई.)
वर्ष 1920 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस विशेष अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन का निर्णय लिया गया। इसका नेतृत्व गाँधीजी ने किया।
इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य यह था कि जो भी सरकारी, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संस्थाएं हैं, उन सबका बहिष्कार कर दिया जाए और इस प्रकार सरकारी मशीनरी को बिल्कुल ही ठप्प कर दिया जाए।
आन्दोलन के कार्यक्रम
उपाधियों एवं प्रशस्ति-पत्रों का परित्याग, सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार, कर की अदायगी नहीं करना, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, अदालतों का बहिष्कार आदि।
5 फरवरी, 1922 को चौरा-चौरी (जिला-गोरखपुर, उत्तरप्रदेश) नामक स्थान पर हिंसक भीड़ ने थाना जला दिया। इसमें 21 सिपाही जलकर मर गए। इस घटना के बाद महात्मा गाँधी ने 12 फरवरी, 1922 को असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया।
स्वराज दल
असहयोग आन्दोलन की वापसी से असंतुष्ट सी. आर. दास, मोतीलाल नेहरू, विट्ठल भाई पटेल आदि ने दिसम्बर, 1922 में स्वराज्य पार्टी बनाई। 1 जनवरी, 1923 को कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी की स्थापना हुई। इसे स्वराज दल भी कहा जाता है।
स्वराज दल का उद्देश्य कौंसिल में प्रवेश कर सरकार के कार्य में अड़ंगा लगाना और अंदर से उसे नष्ट करना था।
सितम्बर, 1923 में कांग्रेस ने इस दल को मान्यता दे दी। वर्ष 1925 में चितरंजन दास की मृत्यु के पश्चात् स्वराज दल कमजोर हो गया।