भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार

1772 ई. में वॉरेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया। इसने ‘मुगल संप्रभुता के मुखौटे को उतार फेंका’ और बंगाल का पूरा प्रशासन अपने हाथों में ले लिया।

मुगल बादशाह इस समय मराठों के संरक्षण में रहउ रहे थे। विश्वासघात के लिए उसे दंडित करने हेतु उसका वार्षिक अनुदान रोक दिया गया। इसके अतिरिक्त उसने बादशाह से इलाहाबाद और कड़ा लेकर इन क्षेत्रों को अवध के नवाब के हाथों बेच दिया।

अवध पर वॉरेन हेस्टिंग्स की कृपा दृष्टि के पीछे उसकी अवध को, कंपनी क्षेत्रों और मराठों के बीच अंत:स्थ राज्य के रूप में स्थापित करने की मंशा थी। इस कारण इसने अवध के नवाब (जिनकी अंग्रेजों से कोई सीधी शत्रुता नहीं थी) की रूहेलखंड जीतने में सहायता की।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार

वॉरेन हेस्टिंग्स द्वारा डाली गई नींव पर ही उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड कार्नवालिस ने भारत विजय अभियान पूरा किया। मैसूर में हैदर अली और उसके बाद उसके पुत्र टीपू सुल्तान की बढ़ती हुई ताकत से क्षेत्र के अन्य प्रतिस्पर्धी राज्यों के हित प्रभावित हुए।

1789 ई. में जब टीपू ने त्रावणकोर के छोटे राज्य पर विजय पाई, तो कार्नवालिस ने उससे बदला लेने का निश्चय किया। इस युद्ध में मराठों और निज़ाम ने भी ब्रिटिशों का साथ दिया। तीसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790 1792 ई.) दो वर्षों तक चला।

टीपू के लिए अपने विरोधियों की सम्मिलित शक्ति का मुकाबला करना कठिन था। परिणामस्वरूप, टीपू शांति के लिए सहमत हो गया। श्रीरंगपट्टम की संधि‘ पर 1792 ई. में हस्ताक्षर किए गए थे। इस प्रकार यह युद्ध तब तक अनिर्णीत ही रहा, जब तक कि रिचर्ड माविस वेलेजली ‘भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को भारत का ब्रिटिश साम्राज्य‘ बनाने की मंशा से भारत में नहीं आ गया।

आंग्ल – मैसूर युद्ध के समय बंगाल के अंग्रेज गवर्नर जनरल

युद्धगवर्नर जनरलसमय
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्धवेरेल्स्ट1767-69
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्धलॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स1780-84
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्धलॉर्ड कार्नवालिस1790-92
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्धलॉर्ड वेलेजली1799
आंग्ल – मैसूर युद्ध के समय बंगाल के अंग्रेज गवर्नर जनरल

आंग्ल-मराठा युद्ध

युद्धकारणपरिणाम
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69 ई.)अंग्रेजों की महत्वाकाक्षाएँ।मालाबार के नायक सामन्तों पर हैदरअली का नियंत्रण। कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली व हैदरअली में शत्रुता। हैदरअली का अंग्रेजों की मित्रता का प्रस्ताव न मानना।मद्रास की संधि, 1769 ई. –  हैदरअली व ईस्ट इंडिया कम्पनी दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विजित प्रदेश तथा युद्धबंदी लौटा दिए। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर किसी भी शक्ति के आक्रमण के समय सहायता देने का वचन दिया।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)अंग्रेजों द्वारा संधि की शर्त का पालन न करना। अंग्रेजों का माहे पर अधिकार। हैदरअली द्वारा त्रिगुट का निर्माण।हैदरअली के फ्रांसीसियों के साथ संबंध।मंगलौर की संधि, 1784 . – टीपू को मैसूर राज्य में अंग्रेजों के व्यापारिक अधिकार को मानना पड़ा। अंग्रेजों ने आश्वासन दिया, कि वे मैसूर के साथ मित्रता बनाए रखेंगे तथा संकट के समय उसकी मदद करेंगे।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई.)मंगलौर की संधि का अस्थायित्व । टीपू का फ्रांसीसियों से सम्पर्क।मराठों को टीपू के विरुद्ध उकसाना।निजाम के भेजे पत्र में कॉर्नवालिस द्वारा टीपू को मित्रों की सूची में शामिल न करना।श्री रंगपट्‌टनम की संधि, 1792 ई. –इस संधि के अनुसार अंग्रेजों अर्थात् कार्नवालिस को टीपू सुल्तान द्वारा अपना आधा राज्य तथा तीन करोड़ रुपये जुर्माना के रूप में दिया।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.)टीपू का फ्रांसीसियों से सम्पर्क।भारत पर नेपोलियन के आक्रमण का खतरा।वेलेजली की आक्रामक नीति।टीपू के राज्य का विभाजन।दक्षिणी भारत पर अंग्रेजी प्रभुत्व तथा वेलेजली की प्रतिष्ठा में वृद्वि, टीपू की मृत्यु।
आंग्ल-मराठा युद्ध

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-82 ई.)

1775ई. में रघुनाथ राव और अंग्रेजों के बीच सूरत की संधि हुई। इस संधि के अनुसार रघुनाथ राव को पेशवा बनना था तथा कम्पनी को सालसेट तथा बेसीन मिलने थे।

अंग्रेज तथा रघुनाथ राव ने मिलकर अरास के युद्ध में पेशवा को पराजित किया। अंग्रेजों की कलकत्ता कौंसिल ने इसकी तीव्र आलोचना की। फलस्वरूप अंग्रेजों और पेशवा के मध्य 1776 ई.  में पूना की संधि हुई। इसके अनुसार कम्पनी ने रघुनाथ राव का साथ छोड़ दिया।

लेकिन अंग्रेजों और मराठों के बीच शांति स्थापित नहीं हो सकी और पेशवा की सेना ने 1778 ई. में अंग्रेजों को तेलगाँव एवं बड़गांव में पराजित किया। 1779 ई.  में बड़गाँव की संधि हुई इसके अंतर्गत अंग्रेजों को मराठों के प्रदेश वापस करने थे। लेकिन अंग्रेजों ने इसे नहीं माना और उनमें अनेक युद्ध हुए।

1782 ई.  में महादजी सिंधिया के प्रयासों के फलस्वरूप दोनों पक्षों में सालबाई की संधि हुई और प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध समाप्त हो गया। इसके अंतर्गत सालसेट एवं एलीफैंटा अंग्रेजों को मिला तथा अंग्रेजों ने माधवराव को पेशवा मान लिया।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-06 ई.)

आंग्ल-मराठा संघर्ष का दूसरा दौर फ्रांसीसी भय से संलग्न था। लॉर्ड वेलेजली ने इससे बचने के लिए समस्त भारतीय प्रान्तों को अपने अधीन करने का निश्चय किया।

लॉर्ड वेलेजली के मराठों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की नीति और सहायक संधि थोपने के कारण द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध आरम्भ हुआ।

1802 ई. में पेशवा ने अंग्रेजों के साथ बेसीन की संधि की। जिसके अंतर्गत पेशवा ने अंग्रेजों का संरक्षण स्वीकार कर लिया। एक तरह से वह पूर्ण रूप से अंग्रेजों पर निर्भर हो गए।

इसलिए अनेक युद्ध हुए और अंत में 1806 ई. में होल्कर और अंग्रेजों के मध्य राजघाट की संधि हुई और युद्ध समाप्त हो गया।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18 ई.)

मराठा सरदारों द्वारा अपनी खोई हुई स्वतंत्रता की पुनः प्राप्ति तथा अंग्रेज रेजीडेंट द्वारा मराठा सरदारों पर कठोर नियंत्रण के प्रयासों के चलते यह युद्ध हुआ।

लॉर्ड हेस्टिंग्स के पिण्डारियों के विरुद्ध अभियान से मराठों के प्रभुत्व को चुनौती मिली तथा दोनों पक्षों में युद्ध आरम्भ हो गया।

1818 ई. को बाजीराव-II ने सर जॉन मेल्कम के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद पेशवा का पद समाप्त कर दिया गया और पेशवा को विठूर भेज दिया गया। पूना पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो गया।

मराठों के आत्मसम्मान की तुष्टि के लिए सतारा नामक एक छोटे राज्य का अंग्रेजों द्वारा निर्माण किया गया तथा इसे शिवाजी के वंशज को सौंप दिया गया।

अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लॉर्ड वेलेजली ने एक नीति अपनाई, जो ‘सहायक संधि’ कहलाई। इस संधि के नियम बहुत सरल थे। वे भारतीय शासक, जिन्हें इस संधि को स्वीकार करने के लिए आमंत्रित किया जाता था, उनसे यह अपेक्षा की जाती थी, कि वे ब्रिटिश अनुमति के बिना किसी अन्य शक्ति से न तो लड़ाई करेंगे और न ही किसी प्रकार का संबंध रखेंगे।

सहायक संधि स्वीकार करने वाले राज्य की आंतरिक शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए ब्रिटिश जनरलों के नियंत्रण में एक ब्रिटिश सेना रखी जाती थी।

इस सेना के खर्च को वहन करने के लिए उस राज्य को अपने क्षेत्र का एक हिस्सा कंपनी को देना पड़ता था या फिर केवल वार्षिक अनुदान देना पड़ता था। इसके बदले में कंपनी सहायक राज्यों को उनके आकार का विचार किए बिना बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान करती थी।

कमज़ोर भारतीय राज्यों के लिए सहायक संधि का यह प्रस्ताव वरदान की तरह था। सहायक संधि को खुशी-खुशी स्वीकार करने वाला प्रथम भारतीय शासक हैदराबाद का निज़ाम था। लेकिन टीपू ऐसा भारतीय शासक नहीं था जो चुपचाप अंग्रेजों के समक्ष घुटने टेक देता। फ्रांसीसी सहायता से अपनी सेना को निरंतर आधुनिक बनाने के टीपू के प्रयासों को अंग्रेज़ों द्वारा एक शत्रुतापूर्ण कार्यवाही के रूप में लिया गया।

इस प्रकार 1799 ई. में चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध हुआ, जिसमें अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ता हुआ टीपू मारा गया। परिणामस्वरूप, मैसूर राज्य का एक बड़ा भाग ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

मैसूर की विजय सैन्य और वित्तीय दृष्टि से क्लाइव के समय से ब्रिटिश शक्ति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विजय थी। युद्ध और कूटनीति की प्रत्येक विधा में अंग्रेजों ने अपने को मैसूर के बहादुर राजाओं से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया।

एक ओर जहाँ हैदरअली और टीपू सुल्तान दोनों ही अन्य भारतीय शक्तियों का समर्थन पाने में असफल रहे, वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ दक्षिण भारत के प्रभावशाली राज्यों का समर्थन पाने अथवा उन्हें अपने समर्थन में तटस्थ रखने में सफल रहे। अंत में, टीपू के राज्य पर विजय के साथ ब्रिटिश साम्राज्य दक्कन के एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तृत हो गया।

टीपू के पतन के तुरंत बाद ब्रिटिश शक्ति के सामने मराठों को भी झुकना पड़ा। द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805) के आरंभ होने के एक वर्ष पूर्व, पेशवा बाजीराव- II ने बसीन की संधि पर हस्ताक्षर कर अंग्रेजों के साथ सहायक संधि कर ली थी।

वास्तव में जसवंत राव होल्कर द्वारा पूना को हस्तगत करने के बाद पेशवा ब्रिटिश सुरक्षा लेने के लिए विवश हुआ, लेकिन यह शीघ्रता में उठाया गया कदम था। इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेज़ों ने पेशवा को राजगद्दी पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिया लेकिन उन्हें मराठों के मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर भी मिल गया।

इस कार्यवाही से मराठा सम्मान को भी चोट पहुँची, क्योंकि प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध (1775-1782 ई.) में वे मराठा शक्ति को चोट पहुँचाने की दिशा में वॉरेन हेस्टिंग्स के प्रयासों को निष्फल करने में सफल रहे थे। अतः मराठा प्रमुखों ने अब अंग्रेज़ों के विरुद्ध हथियार उठा लिए। खिन्न पेशवा ने स्वयं गुप्त रूप से उन्हें लड़ाई के लिए प्रोत्साहित किया।

किंतु, मराठे संयुक्त होने के बजाय अनुशासित ब्रिटिश सेनाओं से अलग-अलग लड़ते रहे। परिणामस्वरूप, 1803 ई. में असाय की लड़ाई में दौलत राव सिंधिया और रघुजी भोंसले द्वितीय की संयुक्त सेनाएँ गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली के छोटे भाई आर्थर वेलेजली से हार गईं।

इसके तुरंत बाद अरगाँव में रघुजी भोंसले-II पुनः हार गया और उसने एक संधि पर हस्ताक्षर करना स्वीकार किया। इस संधि के द्वारा भोंसले राजा ने अंग्रेज़ों को ओडिशा सौंप दिया।

इसी प्रकार उत्तर में लसवारी नामक स्थल में जनरल लेक द्वारा दौलत राव सिंधिया बुरी तरह पराजित हुआ और इसने सुरजी-अर्जनगाँव में एक संधि पर हस्ताक्षर किए।

इस संधि के अनुसार सिंधिया ने गंगा और यमुना नदियों के मध्य स्थित अपने राज्य का एक विशाल भाग अंग्रेज़ों को सौंप दिया।

इन विजयों के फलस्वरूप भारत में राजनीतिक हवा अंग्रेजों के समर्थन में बहने लगी। ओडिशा के तटीय क्षेत्र को मिला लेने के बाद ब्रिटिश राज्य पूर्व में बंगाल और दक्षिण में मद्रास तक भूमि द्वारा जुड़ गया। भय से राजपूत राजाओं ने अंग्रेज़ों के साथ संधियाँ कीं।

1803 ई. में मराठों पर वेलेजली की विजय ने भारत में अंग्रेज़ों को सर्वोच्च सत्ता बना दिया, लेकिन वे मराठों की शक्ति को पूरी तरह नहीं कुचल पाए। मुकुंद दारा में जसवंत राव होल्कर की कर्नल मानसन के विरुद्ध विजय एवं उसके दिल्ली कूच करने के पश्चात वेलेजली को 1805 ई. में कंपनी प्रशासन ने इंग्लैंड वापस बुला लिया। लॉर्ड वेलेजली द्वारा अपूर्ण छोड़े गए इस कार्य को पूरा करने में लॉर्ड हेस्टिंग्स को 12 वर्षों का समय लगा।

लॉर्ड हेस्टिंग्स भारत में अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण करने की इच्छा से आया था। लेकिन अंग्रेज़ों द्वारा पिंडारियों के दमन ने तृतीय मराठा युद्ध का रास्ता खोल दिया। तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818 ई.) का प्राथमिक कारण पेशवा बाजीराव-II का अपनी अधीनस्थ स्थिति से असंतुष्ट होना था। इसलिए उसने अंग्रेजों के विरुद्ध अन्य मराठा प्रमुखों को संगठित करना शुरू किया।

हालांकि, बड़ौदा का गायकवाड़ उसके पक्ष में नहीं था। अतः उस पर दबाव डालने के लिए पेशवा ने गायकवाड़ से अहमदाबाद क्षेत्र की माँग की। यहाँ तक कि पूना में गायकवाड़ों के दूत की भी बहुत बुरी तरह से हत्या कर दी गई। इस हत्या में पेशवा के मंत्री त्रिम्बक जी का हाथ होने की आशंका थी।

इसलिए पूना में ब्रिटिश रेजीडेंट एलफिंस्टन ने गायकवाड़ों की ओर से हस्तक्षेप किया। उसने त्रिम्बक जी के आत्मसमर्पण और पेशवा के साथ एक नई सहायक संधि करने की माँग की। इसी प्रकार, गायकवाड़, भोंसले प्रमुख अप्पा साहेब और दौलतराव सिंधिया को अंग्रेजों के साथ नई संधियाँ करनी पड़ी।

मराठा सरदारों के साथ हुए इस प्रकार के व्यवहार को पेशवा ने पसंद नहीं किया। अतः उसने अंग्रेज़ों पर आक्रमण कर दिया। इसी समय नागपुर में अप्पा साहेब भोंसले ने और इंदौर में मल्हार राव- II ने अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा लिए। अंग्रेज़ों ने शीघ्र ही इन तीनों को अलग-अलग हरा दिया और इस प्रकार तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का अंत 1818 ई. में हो गया।

पिंडारियों का उद्भव अज्ञात है। उनका यह नाम संभवतः कर्नाटक के बेदर अथवा बैदर से लिया गया है। वे अपने प्रमुखों के अधीन समूहों में कार्य करते थे और उनकी जातीय अथवा धार्मिक पहचान भिन्न थी।

पेशवा बाजीराव प्रथम के समय से ही वे मराठा सेना से अनियमित घुड़सवारों के रूप में जुड़े थे। पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद वे मालवा क्षेत्र में बस गए और इन्होंने अपने को सिंधिया और होल्करों से जोड़ लिया। लेकिन ज्योंही मराठों की शक्ति का ह्रास हुआ, यह मध्य भारत, राजस्थान के कुछ भागों और दक्कन के कुछ जिलों तक फैले वृहद् भौगोलिक क्षेत्र में अंधाधुंध लूटमार करने लगे।

अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार करने की प्रक्रिया में उनका दमन करना आवश्यक समझा। 1817 ई. में ब्रिटिश जनरलों जॉन मैलकॉम और थामस हिस्लॉप ने लॉर्ड हेस्टिंग्स की देख-रेख में पिंडारी दलों को कुचल दिया।

इस युद्ध के परिणाम मराठों के लिए बहुत भयानक सिद्ध हुए। पेशवा के पद को समाप्त कर दिया गया तथा उसका संपूर्ण राज्य अंग्रेजों द्वारा हस्तगत कर लिया गया। छत्रपति शिवाजी के एक वंशज को सतारा के सिंहासन पर बैठाया गया।

इसी प्रकार, अप्पा साहेब को पदच्युत कर दिया गया और नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित उनका संपूर्ण क्षेत्र हस्तगत कर लिया गया। नागपुर में रघुजी भोंसले-II के स्थान पर उनके अवयस्क पुत्र को सिंहासन पर बैठाया गया। मल्हार राव होल्कर द्वितीय को सहायक संधि स्वीकार करने और राजपूत राज्यों से अपने सारे दावे छोड़ने के लिए बाध्य किया गया। अतः इस नवीन राजनीतिक परिदृश्य में अंग्रेज़ों का प्रभुत्व संपूर्ण हो गया।

मराठों को पराजित करने से पूर्व लॉर्ड हेस्टिंग्स ने भारत में एक बड़ी युद्धनीतिक कार्यवाही कर दी थी। नेपाल के गोरखा उस समय शक्तिशाली हो रहे थे। उत्तर भारतीय मैदानों के क्षेत्र हथियाने के उनके निश्चय ने ब्रिटिश हितों को प्रभावित किया। अतः आंग्ल-नेपाल युद्ध (1814-1816 ई.) अवश्यंभावी हो गया।

प्रारंभ में अंग्रेजों को कुछ पराजयों का सामना करना पड़ा। अंततः गोरखा नेता अमर सिंह को पराजित कर दिया गया और मार्च, 1816 में ‘सगौली की संधि’ पर हस्ताक्षर किए गए। इस संधि द्वारा गोरखों ने गढ़वाल और कुमायूँ अंग्रेज़ों को सौंप दिए।

इससे अंग्रेजों का क्षेत्रीय विस्तार उत्तर-पश्चिम में पहाड़ों तक हो गया। पूर्व में गोरखों ने सिक्किम को भी छोड़ दिया, जो ब्रिटिश संरक्षित राज्य बन गया। इन सबके साथ ही गोरखों ने काठमांडू में एक ब्रिटिश रेजीडेंट रखना भी स्वीकार कर लिया।

1816 ई. में ब्रिटिश-भारत और नेपाल के बीच स्थापित संबंध आज भी कायम हैं। तभी से भारतीय सेना में सेवा के लिए विशाल संख्या में गोरखों की भर्ती की जाती है। यह आज भी सम्मान के साथ ब्रिटिश सेना में सेवारत हैं।

लॉर्ड हेस्टिंग्स के बाद सबसे बड़ा विलयकर्ता लॉर्ड डलहौज़ी (1846-1856 ई.) था। लेकिन इन दोनों साम्राज्यवादी गवर्नर जनरलों का मध्यवर्ती काल भी घटनाप्रधान था। इस समय बर्मा (म्यांमार) और सिंध पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण स्थापित हो गया।

सिंध विजय के बाद ही पंजाब पर विजय प्राप्त की गई। अंग्रेजों के लिए यह विजय उनके साम्राज्य की सीमाओं को उत्तर-पश्चिम में उसकी प्राकृतिक सीमा तक विस्तृत करने के लिए आवश्यक थी।

पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु से जो राजनीतिक अव्यवस्था उत्पन्न हुई। मेजर ब्रॉडफूट को पंजाब में लॉर्ड हार्डिंग (1844- 1848 ई.) द्वारा अंग्रेजों के राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया था, जिसने सिक्ख कुलीनों को विभाजित करने और सिक्ख सेना को सतलुज नदी पार करने के लिए प्रवृत्त करने हेतु हर तरह का प्रयास किया।

1809 ई. में अमृतसर में की गई संधि द्वारा इस नदी को ब्रिटिश और महाराजा रणजीत सिंह के राज्यक्षेत्रों के मध्य की सीमा निर्धारित कर दिया गया था। सिक्ख सेना ने मुश्किल से नदी पार की ही थी, कि लॉर्ड हार्डिंग ने युद्ध की घोषणा कर दी।

यह युद्ध प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1845-1846 ई.) के नाम से जाना गया। सिक्खों के सेनापति तेजसिंह और अन्य सेनापतियों द्वारा की हार के साथ ही यह युद्ध समाप्त हुआ। अंग्रेज़ लाहौर की ओर बढ़े।

और शांति की शर्तों का निर्देश दिया। इसी के अनुरूप मार्च, 1846 में लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर किए गए। इस संधि द्वारा महाराजा दलीप सिंह ने सतलुज नदी के बाईं तरफ और सतलुज व व्यास नदी के बीच के सभी क्षेत्र अंग्रेज़ों को सौंप दिए।

युद्ध के एक बड़े मुआवजे के रूप में उसे जम्मू और कश्मीर भी सौंपना पड़ा। उसकी सेना की शक्ति बहुत कम कर दी गई। इसके अतिरिक्त लाहौर में सुरक्षा सेना के साथ एक ब्रिटिश रेजीडेंट को नियुक्त किया गया।

1846 ई. के शांति समझौते ने न तो अंग्रेज़ों की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति की और न ही सिक्खों को संतुष्ट किया। सिक्खों ने विशेष रूप से पंजाब के आंतरिक मामलों में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को पसंद नहीं किया।

अज़ान तथा गौ-वध में मुसलमानों को छूट दिए जाने को उन्होंने स्वीकृति नहीं दी। हटाए गए सैनिक स्वाभाविक रूप से अपनी नौकरियों को खोने के बाद खुश नहीं थे। महाराजा दलीप सिंह की पदच्युत प्रतिशासक, रानी जिंदन को षड्यंत्र के आरोप में चुनार निर्वासित किए जाने की घटना ने भी आग में ईंधन का काम किया।

लॉर्ड डलहौज़ी पंजाब को अधिगृहीत किए जाने के अवसर का इंतज़ार कर रहा था। उसको यह अवसर उस समय मिला जब गवर्नर मूलराज द्वारा ‘उत्तराधिकार शुल्क’ चुकाने में असमर्थता के कारण मुल्तान में विद्रोह हुआ।

इसी बीच 20 अप्रैल,1848 ई. को दो अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या कर दी गई। डलहौज़ी की राय में यह ‘सिक्ख जाति का युद्ध के लिए आह्वान’ था। इस प्रकार का ‘विश्वास-भंग’ होने पर द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1848-1849 ई.) हुआ। कई लड़ाइयों के बाद अंततः 12 मार्च, 1849 को सिक्खों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके सत्रह दिनों बाद पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में अधिग्रहण कर लिया गया।

महाराजा दलीप सिंह को इंग्लैंड निर्वासित कर दिया गया और पेंशन दी गई। प्रसिद्ध कोहेनूर हीरा कोहेनूर भी उससे लेकर महारानी विक्टोरिया के पास भेज दिया गया।

द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध उन युद्धों की श्रृंखला में अंतिम था, जिन्हें अंग्रेजों ने भारत की प्राकृतिक सीमाओं के अंदर अपने साम्राज्य विस्तार के लिए लड़ा था। लेकिन क्षेत्रों के अधिग्रहण के लिए केवल सामरिक विजय ही डलहौज़ी द्वारा अपनाया गया एक मात्र तरीका नहीं था।

सतारा, जैतपुर, उदयपुर, संबलपुर, नागपुर, भगत और झाँसी के अधिग्रहण के लिए उसने ‘विलय नीति’ का प्रयोग किया। बरार और अवध का अधिग्रहण उसने कुप्रशासन का आरोप लगाकर किया। इसी प्रकार उसने शासकों की उपाधियों और पेंशनों को समाप्त करते हुए कर्नाटक और तंजौर का भी विलय कर लिया था।

लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा ‘विलय नीति’ को इस मान्यता पर लागू किया गया, कि इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में सर्वोच्च शक्ति थी। बिना कंपनी की अनुमति के आश्रित शासकों द्वारा गोद लिए गए पुत्रों को सत्ता हस्तांतरित नहीं की जा सकती थी।

इन सभी कमियों के बावजूद भारत पर अंग्रेज़ों की विजय ने कम-से-कम एक उद्देश्य की पूर्ति की। इसने भारत के भौगोलिक क्षेत्र को अपेक्षित राजनीतिक एकता प्रदान की। जिस समय लॉर्ड डलहौज़ी ने भारत छोड़ा, उस समय ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाएँ एक ओर हिंदुकुश तो दूसरी ओर बर्मा को छू रही थीं और इसके अंतर्गत हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक का संपूर्ण भू-भाग आ गया था।

निस्संदेह, एक विदेशी शक्ति के अधीन राजनीतिक एकीकरण अपने साथ वृहद औपनिवेशिक शोषण लेकर आया था। साथ ही इसने भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में सजग होने, उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने और स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु एक आधार प्रदान किया।

अंग्रेजों एवं भारतीय राज्यों के बीच हुई प्रमुख संधियाँ

संधिवर्षसंधिकर्ता
अलीनगर की संधि9 फरवरी, 1757बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच। इस संधि में अंग्रेजों के प्रतिनिधि के रूप में क्लाइव और वाटसन शामिल थे।
अमृतसर की संधि28 अप्रैल, 1809महाराजा रणजीत सिंह और ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच। इस संधि के समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड मिन्टों थे जिन्होंने ईस्ट इण्डिया कंपनी की और से प्रतिनिधित्व किया था।
इलाहाबाद की संधि1765 ई.क्लाइव और मुगल बादशाह शाहआलम-II के बीच।
उदयपुर की संधि1818 ई.उदयपुर के राजा राणा और अंग्रेजों के बीच।
गंडमक की संधि1879 ई.वायसराय लॉर्ड लिटन और अफगानिस्तान के अपदस्थ अमीर शेर अली के बीच।
देवगाँव की संधि17 दिसम्बर, 1803 ई.रघुजी भोंसले और अंग्रेजों के बीच।
पुरंदर की संधिमार्च, 1776 ई.मराठों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच।
पूना की संधि1817 ई.पेशवा बाजीराव-II और अंग्रेजों के बीच।
बड़गाँव की संधि1779 ई.मराठों और कंपनी के बीच (प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के समय )। इस संधि पर अंग्रेजों की ओर से कर्नल काकवर्न ने हस्ताक्षर किया था।
बनारस की संधिप्रथम संधि – 1773 ई.अवध के नवाब शुजाउद्दौला और अंग्रेज ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच।
 द्वितीय संधि – 1776 ई.काशी नरेश चैत सिंह और ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच।
बसीन की संधि31 दिसम्बर, 1802 ई.मराठा पेशवा बाजीराव-II और अंग्रेजों के बीच।
सालबाई की संधि1782 ई.महाराजा शिन्दे और ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच।
सुर्जीअर्जन गाँव की संधि1803 ई.अंग्रेजों और दौलत राव के बीच।
अंग्रेजों एवं भारतीय राज्यों के बीच हुई प्रमुख संधियाँ
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