ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह – नागरिक विद्रोह

ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह

संन्यासी विद्रोह (1763-1800 ई.)

संन्यासी विद्रोह की स्पष्ट जानकारी बंकिम चन्द्र चटर्जी के उपन्यास ’आनन्दमठ‘ से मिलती है, इस विद्रोह को कुचलने के लिए वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्यवाही करनी पड़ी थी।

अंग्रेजों द्वारा बंगाल के आर्थिक शोषण से जमींदार, कृषक तथा शिल्पी सभी नष्ट हो गए। 1770 ई. में भीषण अकाल पड़ा। तीर्थ-स्थानों पर आने जाने पर लगे प्रतिबंधों से संन्यासी लोग बहुत क्षुब्ध हुए।

चुआर विद्रोह (1766-72 ई., 1795-1816 ई.)

अकाल तथा बढ़े हुए भूमि कर तथा अन्य आर्थिक संकटों के कारण मिदनापुर जिले की आदिम जाति के चुआर लोगों ने हथियार उठा लिए।

रमोसी विद्रोह

पश्चिम घाट के निवासी रमोसी जाति के लोगों ने अंग्रेजी प्रशासन पद्धति तथा शासन से अप्रसन्न होकर 1822 ई. , 1825-26 ई. और 1829 ई. में विद्रोह कर दिया तथा सतारा के आस-पास का प्रदेश लूट लिया।

कोल्हापुर तथा सावन्तवाड़ी विद्रोह

1844 ई. में कोल्हापुर राज्य के प्रशासनिक पुनगर्ठन होने के कारण गाड़कारी सैनिकों की छंटनी कर दी गई। बेकारी का प्रश्न सम्मुख देखकर गाड़कारियों ने विद्रोह कर दिया। इसी प्रकार सावन्तवाड़ी में भी विद्रोह हुआ।

पागल पंथी विद्रोह (1840, 1850 ई.)

यह अर्द्धधार्मिक सम्प्रदाय था, जिसको उत्तर बंगाल के करम शाह और उसके बाद उसके पुत्र टीपू ने आगे बढ़ाया। ये राजनीतिक तथा धार्मिक विचारों से प्रभावित थे।

फरैजी विद्रोह (1838-1857 ई.)

फरैजी लोग धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिवर्तनों के प्रतिपादक थे तथा शरीयतुल्ला द्वारा चलाए गए सम्प्रदाय के अनुयायी थी।

शरीयतुल्ला के पुत्र दादू मियां ने बंगाल से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाई। यह विद्रोह जमींदारों के अत्याचारों के विरोध में 1838 ई. से 1857 ई. तक चलता रहा।

आदिवासी विद्रोह

कोल विद्रोह (1820-1836 ई.)

छोटा नागपुर के कोलों ने अपना क्रोध उस समय प्रकट किया, जब उनकी भूमि उनके मुखिया मुण्डों से छीनकर मुस्लिम कृषकों तथा सिक्खों को दे दी गई। 1831 ई. में कोलों ने लगभग 1000 विदेशी अथवा बाहरी लोगों को या तो जला दिया या उनकी हत्या कर दी।

एक दीर्घकालीन तथा विस्तृत सैन्य अभियान के पश्चात् ही अशांतग्रस्त इलाके यथा-रांची, सिंहभूमि, हजारीबाग, पलामू आदि क्षेत्रों में शान्ति स्थापित हो सकी।

संथाल विद्रोह (1855 ई.)

राजमहल जिले के संथाल लोगों ने भूमिकर अधिकारियों के हाथों दुर्व्यवहार, पुलिस के दमन तथा जमींदारों एवं साहूकारों की वसूलियों के विरुद्ध अपना रोष प्रकट किया।

इन लोगों ने सिद्धू, कान्हू के नेतृत्व में कम्पनी के शासन को अन्त करने की घोषणा कर अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। पृथक संथाल परगना का निर्माण एवं विस्तृत सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही 1856 ई. में स्थिति नियंत्रण में आई।

अहोम विद्रोह (1828-1830 ई.)

अंग्रेजों ने अहोम प्रदेश  को भी अपने प्रदेशों में सम्मिलित करने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप अहोम लोगों ने गोमधर कुँवर को अपना राजा घोषित कर 1828 ई. में रंगपुर पर चढ़ाई करने की योजना बनाई।

1830 ई. में दूसरे विद्रोह की योजना बनी। कम्पनी के अच्छे सैन्य बल और शांतिमय नीति के कारण इस विद्रोह को असफल बनाया जा सका।

खासी विद्रोह (1833 ई.)

अंग्रेजों ने जयंतिया तथा गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार करने के बाद ब्रह्मपुत्र घाटी तथा सिल्हट को जोड़ने के लिए एक सैनिक मार्ग के निर्माण हेतु योजना बनाई।

नक्सलों के राजा तीरत सिंह ने खाम्पटी तथा सिंहपों लोगों की सहायता से अंग्रेज विरोधी आन्दोलन की मुहिम छेड़ दी। 1833 ई. में सैन्य बल से ही अंग्रेज इस आन्दोलन को दबा सके।

कोल विद्रोह

भीलों की तरफ कोलों ने भी अंग्रेजी शासन से उत्पन्न बेकारी के कारण 1829 ई., 1839 ई. तथा पुनः 1844 ई., 1848 ई. तक विद्रोह किए। ये भीलों के पड़ोसी थे।

कच्छ का विद्रोह

1819 ई.  में कच्छ के राजा भारमल को अंग्रेजों ने हटाकर वहाँ का वास्तविक शासन एक अंग्रेज रेजिडेंट के अधीन प्रतिशासक परिषद् को दिया।

इस परिषद् द्वारा किए गए परिवर्तनों तथा अत्यधिक भूमि कर लगाने के कारण लोगों ने विद्रोह कर दिया, अंग्रेजों को चिरकाल तक सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी पुनः यहाँ 1831 ई. में विद्रोह हो गया।

मुंडा विद्रोह (1899-1900 ई.)

मुंडा जाति में सामूहिक खेती का प्रचलन था, लेकिन जागीरदारों, ठेकेदारों, बनियों और सूदखोरों ने सामूहिक खेती की परम्परा पर हमला बोल दिया। इसके विरोध में आदिवासियों ने बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1899 ई. में विद्रोह का ऐलान किया।

लगभग छह हजार मुंडाओं ने तीर-तलवार, कुल्हाड़ी व अन्य हथियारों से लेस होकर 6 पुलिस थाना क्षेत्रों पर तीर चलाए और चर्च़ों को जलाने का प्रयास किया। लेकिन फरवरी, 1900  के शुरू में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई।

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