राजस्थान में न्यायिक व्यवस्था के शीर्ष स्तर पर राजस्थान उच्च न्यायालयहै।
संविधान के अनुच्छेद 214 के तहत राजस्थान उच्च न्यायालयका उद्घाटन जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय द्वारा 29 अगस्त, 1949 को जोधपुर में किया गया।
प्रथम मुख्य न्यायाधीश कमलकान्त वर्मा एवं 11 अन्य न्यायाधीशों को महाराजा मानसिंह ने शपथ दिलवाई।
संविधान लागु होने के बाद प्रथम मुख्य न्यायाधीश श्री कैलाशनाथ वांचू थे।
न्यायाधीश श्री कैलाशनाथ वांचू मुख्य न्यायाधीश के पद पर सर्वाधिक लम्बी अवधि तक पदासीन रहे। (1951-1958)
पी. सत्यनारायण राव समिति (सदस्य – पी. सत्यनारायण राव, वी. विश्वनाथन, बी. के. गुप्ता) की सिफारिश पर राजस्थान उच्च न्यायालयकी जयपुर की ब्रेंच 1958 में समाप्त कर दी गयी।
सन् 1977 में पुन: जयपुर ब्रेंच की स्थापना की गयी।
राजस्थान उच्च न्यायालय में वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश सहित 50 न्यायाधीश के पद स्वीकृत है।
वर्तमान राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इन्द्रजीत महांति (6 अक्टूबर 2019 से वर्तमान) है।
राज्यपाल राज्य लोक सेवा आयोग एवं उच्च न्यायालय के परामर्श के बाद जिला न्यायाधीश से भिन्न व्यक्ति को भी न्यायिक सेवा में नियुक्त कर सकता है।
अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण (अनुच्छेद 235)
जिला न्यायालयों एवं अन्य न्यायालयों में न्यायिक सेवा से संबंधित व्यक्ति की पदस्थापना, पदोन्नति एवं अन्य मामलों पर नियंत्रण का अधिकार राज्य के उच्च न्यायालय को हाेता है।
अधीनस्थ न्यायालयों की संरचना
जिला न्यायाधीश जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है।
उसे सिविल और अपराधिक मामलों में मूल और अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
जिला न्यायाधीश सत्र न्यायाधीश भी होता है जब वह दीवानी मामलों की सुनवाई करता है तो उसे जिला न्यायाधीश कहा जाता है तथा जब वह फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है तो उसे सत्र न्यायाधीश कहा जाता है।
जिला न्यायाधीश के पास जिले के अन्य सभी अधीनस्थ न्यायालयों का निरीक्षण करने की शक्तियाँ हाेती है।
उसके फैसले के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
जिला न्यायाधीश को किसी अपराधी को उम्रकैद से लेकर मृत्युदंड देने का अधिकार होता है। हालांकि उसके द्वारा दिये गये मृत्युदण्ड पर तभी अमल किया जाता है जब राज्य का उच्च न्यायालय उसका अनुमोदन कर दे।
जिला एवं सत्र न्यायाधीश से नीचे दीवानी मामलों के लिये अधीनस्थ न्यायाधीश का न्यायालय एवं फाैजदारी मामलों के लिए मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी का न्यायालय होता है।
सबसे नीचले स्तर पर दीवानी मामलों के लिये मुंसिफ न्यायाधीश का न्यायालय तथा फौजदारी मामलों के लिये सत्र न्यायाधीश का न्यायालय होता है।
मुंसिफ न्यायाधीश का सीमित कार्यक्षेत्र होता है तथा वह छोटे दीवानी मामलों पर निर्णय देता है जबकि सत्र न्यायाधीश ऐसे फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है जिसमें 3 वर्ष के कारावास की सजा दी जा सकती है।